देखो इन लहरों को

20-03-2014

देखो इन लहरों को

डॉ. रेणुका शर्मा

देखो, इन लहरों को! 
न छेड़ो, 
इसके अस्तित्व की नैसर्गिकता को
सोई ही रहने दो इन लहरों को। 
जो अपनी तमन्नाओं की कोहनी का
तकिया बनाए, 
किसी भोले शिशु-सी
अपलक झाँकती, निहारती, 
कभी मुस्काती, कभी झिझकती, 
कभी अपनी अल्हड़ मस्ती में, 
बहती जाती अनजान, 
खोई है अपने ही में। 
देखो, इन लहरों को
न छेड़ो, 
इसके अस्तित्व की नैसर्गिकता को
सोई ही रहने दो इन लहरों को। 
 
लगता है, 
रोष से है ये दबी-दबी, 
तो कभी रूठी हुई सी, 
समुद्र की अनगिनत परतों की चादर बिछाए, 
और सपनों का लिहाफ़ ओढ़कर, 
सोई है खोई-खोई सी। 
जगाने पर प्रश्नों का पुल बनाकर, 
छा जाएँगी चारों ओर, 
अपनी पारदर्शी पनीली चादर से
आसमां को ढकने की होड़ करती, 
छा जाएँगी चारों ओर, 
ओर फिर जल–थल हो जायेगा एक। 
देखो, इन लहरों को
न छेडो, 
इसके अस्तित्व की नैसर्गिकता को
सोई ही रहने दो इन लहरों को। 
 
सुन मानव, मान जा, 
न खेल, खेल यह, 
प्रकृति पर जमाने का
अपना आधिपत्य, 
धरती की गोद में
जल में, थल में, पल रहे
हर जीव का अपना है महत्त्व। 
देखो, इन लहरों को
न छेड़ो, 
इसके अस्तित्व की नैसर्गिकता को, 
सोई ही रहने दो इन लहरों को। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें