बूँद थी मैं
सपना मांगलिकबूँद थी मैं वो समंदर
की तलब दे गया
कर दिया तन्हा, और
जीने की क़सम दे गया
दोस्तों के वेश में, मिलते
अक़्सर दुश्मन यहाँ
उम्मीद जिससे थी मलहम की,
वो दिल पे ज़ख़्म दे गया
ख़ुद पे ही हँसती हूँ और
ख़ुद पे ही रोती हूँ अब
क्या किया उस ज़ालिम ने,
क्यूँ इतने सितम दे गया
नफ़रत की दुनिया है लोगो,
दिल में सबके ज़हर भरा
ठंडक दिल की छिनी मुझसे,
वो ख़ूने गरम दे गया
हर लम्हा सदियों से लम्बा,
बीते ना कैसे बिताऊँ मैं
एक जनम में ‘सपना’ तुझको,
कितने जनम दे गया