अकेले बैठ कर
आदित्य तोमर ’ए डी’अकेले बैठ कर सोचने पर
एक बात जो खटखटाती
है मस्तिष्क के द्वार को
कि कोई कितना अकेला
हो सकता है?
इतना कि दर्पण में देखने
पर भी
उसे दिखाई देता है सिर्फ़ अपने
पीछे का ख़ालीपन,
सड़क पर चलते हुए भी
उसे सिर्फ़ नज़र आते हैं
वाहन,
दरअस्ल वह अकेला
नहीं होता
वह जा चुका होता है
वहाँ से,
जहाँ सबका साथ होना
आवश्यक होता है।
1 टिप्पणियाँ
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Very wonderful and deeply thought provoking poem. We are proud of you. You always touch the heights.