उत्तर गुमनाम रहे
स्व. राकेश खण्डेलवाल
एक प्रश्न जो ढलती निशा उछाल गई
उत्तर उसका ढूँढ़ सुबह से शाम रहे
थकन पंथ के अंतिम क़दमों की, या हो
उगी भोर की अँगड़ाई में क्या अंतर
संकल्पों की भरी आँजुरी में संशय
या हो आहुतियों से रही आँजुरि भर
एक अकेला तारा नभ में उगा प्रथम
याकि आख़िरी तारा, गगन अकेला हो
दृष्टि साधना, प्रथम मिलन की आस लिये
दृष्टि मिले जब घिरे विदा की बेला हो
हैं समान पल, लेकिन अर्थ विलग क्यों हैं
प्रश्न चिह्न यह आकर उँगली थाम रहे
प्रश्नों के व्यूहों में उत्तर घिरे हुए
जाने कैसे स्वयं प्रश्न बन जाते हैं
उतनी और उलझती जाती है गुत्थी
जितना ज़्यादा हम इसको सुलझाते हैं
सर्पीली हों पगडंडी, या हों कुन्तल
भूलभुलैय्या राह कहाँ बन पाती है
हो आषाढ़ी या हो चाहे सावन की
एक अकेली बदली क्या क्या गाती है
अपनी आँखों के दर्पण में छाया को
हम तलाशते हर पल आठों याम रहे
कोई अटका रहा वृत्त में, व्यासों में
कोई उलझा बिन्दु परिधि के पर जाकर
कोई अर्धव्यास में सिमटा रहा सदा
कोई था समकोण बनाये रेखा पर
हम थे त्रिभुजी, किन्तु आयतों में उलझे
कोई जिनमें नहीं रहा सम-अंतर पर
सारे जोड़ गुणा बाक़ी के नियम थके
जीवन का इक समीकरण न सुलझा पर
अंकगणित से ज्यामितियों के बीच रहा
बीजगणित, जिसके उत्तर गुमनाम रहे
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- गीत-नवगीत
-
- अंतिम गीत लिखे जाता हूँ
- अनुत्तरित प्रश्न
- अपाहिज व्यथा
- असलियत बस अँगूठा दिखाती रही
- अस्मिता खो गई
- आँसू पी लिए
- आज अनुभूतियाँ शब्द बनने लगीं
- आज उन्हीं शब्दों को मेरी क़लम गीत कर के लाई है
- आज फिर महका किसी की याद का चंदन
- आप
- आप उपवन में आये
- आप जिसकी अनुमति दें
- आस्था घुल रही आज विश्वास में
- इसीलिये मैं मौन रह गया
- उत्तर गुमनाम रहे
- कविता - क्षणिका
- कविता
- नज़्म
- विडियो
-
- ऑडियो
-