तो ऽ . . .

01-09-2025

 तो ऽ . . .

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सुखासन लगाकर कब से चिंतित मुद्रा में बैठे बाबूजी उसी रूप में आगे को झुक आए। गहरी होकर चिंता की घनी रेखाएँ उनके झुर्रियों भरे गोरे सुगढ़ मुखमंडल को अलग ही गरिमा प्रदान कर रही थीं। बिस्तर पर कुहनियाँ लगाकर दोनों हथेलियों के बीच अपने मुख को टिका रखा था उन्होंने। ऊपर से शांत लग रहे थे। पर, अंतर्मन में तो भयंकर द्वंद्व मचा हुआ था। 
“तो ऽ . . . ऽ . . . क्या सचमुच प्रेमानंद महाराज जी और अनिरुद्धाचार्य जी को क्षमायाचना करनी पड़ेगी? हमारे संस्कृति के संवाहक संतों-महात्माओं को? . . . परन्तु, क्यों और किससे?” 

इन्हीं ‘क्या’, ‘क्यों’ और ‘किससे’ जैसे अनुत्तरित प्रश्नों पर अटक गये थे वे। ये प्रश्न उनके मन को लगातार मथ रहे थे . . . विचलित कर रहे थे। फिर-फिर उठ आने वाले ये प्रश्न जवाब माँग रहे थे। 

वे पुनः सोचते—पूरे वस्त्र पहनना, स्त्रियोचित मर्यादा में रहना, ये अच्छी बातें—ज़रूरी बातें हैं, ये ग़लत कैसे हो सकती हैं . . .? 

“नहीं, ग़लत नहीं हैं . . . ग़लत हो ही नहीं सकती हैं।”

बीच-में स्वयं अपने प्रश्नों के उत्तर भी देते जाते थे। प्रश्नोत्तर के क्रम में उनके चेहरे के भाव भी अदल-बदल जाते थे। 

“फिर भी इस बात पर इतना बड़ा हंगामा! . . . टी वी चैनलों, सोशलमीडिया और प्रिंट मीडिया के द्वारा इतना बड़ा बवाल मचाया जा रहा है? . . . मानो महाराज जी अपराधी हों . . . और उनके लिए यह थुक्कम-फ़ज़ीहत बहुत-बहुत ज़रूरी हो . . . न न्, ये थुक्कम-फ़ज़ीहत तक से ही नहीं मानने वाले हैं। ये तो महाराज जी को दण्डित करना चाहते हैं। ताकि भविष्य में कोई ऐसी बात नहीं करे . . .। यह किसी युवती की नाराज़गी भी नहीं है . . .। कोई और ही बात है . . .। क्या कोई राज़ की बात . . .? ‌हो भी सकता है। इसमें आश्चर्य क्या है? हमारी सभ्यता-संस्कृति की शुचिता-श्रेष्ठता अन्यों को कानी आँख भी भाती है क्या? परन्तु, यहाँ तो अपने ही लोग बौराये हुए हैं . . .। कोढ़ में खाज . . .”

“बात क्या है? . . . इस युवा नयी पीढ़ी को अपसंस्कृति से बचाना ही तो उद्देश्य है न महाराज जी का। ताकि समाज और देश की मर्यादा की रक्षा हो सके। अपनी संस्कृति की विशेषता ही यही है। विश्व में मान है हमारा इन बातों के लिए।

“अच्छा कहो, छोटे और कटे-फटे – ये न्यू स्टाइल के कपड़े हैं या फ़ैशन के बहाने अंगों का—नारी शरीर की कोमलता-मृदुता और सौंदर्य का प्रदर्शन करने के माध्यम? ये ढँकते तो बिलकुल ही नहीं हैं इन्हें। फिर भी जानें क्यों, इतने बिकते हैं—पहने भी जाते हैं? . . . जिन अंगों को पुरुष नितांत एकांत में मुग्ध होकर देखता और उनके वशीभूत हो प्रेम के बँधन में बँधता है—आजीवन बँधा रहता है, ईश्वर प्रदत्त उसी वरदान को राह चलते लोगों और मनचलों को दिखलाकर ये युवतियाँ क्या साबित करना चाहती हैं? क्या ये उन्हें आमंत्रित नहीं करतीं कि आओ, मुझे देखो। तुम भी देखो और तुम भी . . . और . . . ऽ . . . और यह कोई विवशतावश तो नहीं ही कर रही हैं। क्षुधापूर्ति के लिए नहीं . . . विवशता क्या होगी? ये सभी तो सुविधा-संपन्न घरों की सुशिक्षित युवतियाँ हैं। इसीलिए इसका प्रभाव भी पड़ता है समाज पर। ठीक वैसा ही, जैसा वे चाहती हैं . . .। यह आए दिन हो रहा लवजिहाद . . . लिव इन . . .। हँह् . . . लिव इन का तो कहना ही क्या? कुत्ते-कुतियों की तरह आज एक के साथ, कल दूसरे के . . .। अच्छे-भले घरों की पढ़ी-लिखी व कमाऊ युवतियाँ भी आधुनिकता और प्रेम के धोखे में अपना सर्वस्व गँवाकर पछताती हैं, आत्महत्या करती हैं या फिर बत्तीस-छत्तीस टुकड़ों में . . .। छिः . . . कैसा समय है? कैसी विकृत सोच है? कोई इन्हें कहने वाला नहीं . . . रोकने-टोकने वाला नहीं। माता-पिता बेज़ुबान हैं या आधुनिकता का चश्मा लगाए मौन साधे बैठे हैं। पड़ोसी या बाहरी अन्य कोई रोक-टोक सकता नहीं। तब और कौन कहेगा? कैसे कहेगा? . . . पर, अगर यही चलन हो गया तो . . . ऽ . . .”

बाबूजी इस ‘तो’ पर भी अटक गये। 

आत्मालाप करते एक ही मुद्रा में बैठे उनकी नज़रें कहीं दूर—बहुत दूर देख रही हों जैसे। शून्य में ताकते हुए थक गये थे शायद। 

चेहरा उठाकर उन्होंने हाथ सीधे किये। फिर पैरों को भी। धीरे-धीरे बायीं करवट लेट रहे बायीं बाँह के ऊपर सिर रखकर। दूसरा दाहिना हाथ सीधा था। रह-रहकर दाहिने हाथ की तर्जनी तन जाती थी . . . जैसे किसी को कुछ कह रहे हों, निर्देशित कर रहे हों, चेता रहे हों। 

“ओह, यह नयी पीढ़ी . . . नऽ . . यी पी . . ऽ . . ढ़ी . . .”—बड़ी हिक़ारत से कहा उन्होंने। मुखमुद्रा विकृत हो गयी उनकी। 

“यही नयी पीढ़ी—यही ऽ ले जाएगी हमें, हमारे समाज और देश को आगे . . .? जिसे अपनी राह मालूम नहीं? अगला क़दम पृथ्वी पर पड़ेगा या आसमान में . . . या कि किसी गटर में? . . . यह अग्रसर होती पीढ़ी है या . . .?

“स्वामी जी ने ‘लड़के और लड़कियों’ कहा था न? हाँ-हाँ। दोनों के लिए कहा था उन्होंने . . .। वे दोनों को सचेत कर रहे थे, बल्कि उनके साथ-साथ पूरे मानव समाज को। ताकि ग़लत राह पकड़ कर हमारी युवा पीढ़ी गर्त की ओर न बढ़ जाए . . .। लेकिन, प्रतिक्रिया तो केवल लड़कियाँ ही दे रही हैं। ऐसा क्यों? लड़कों को बुरा नहीं लगता है? किसी भी लड़के ने एक शब्द तक नहीं कहा है, जबकि लड़कियाँ उछल-उछल कर विरोध जता रही हैं। बायकाट कर रही हैं महाराज जी का . . .

“हाँ ऽ . . . ऽ . . . इस महिला सशक्तीकरण का मोर्चा ऐसी जाहिल लड़कियों ने ही थाम रखा है . . . सब ओर यही सब . . .। सही-ग़लत जाने-बूझे बग़ैर ही विरोध का झंडा लेकर आ खड़ी होती हैं मैदान में और लड़के– पुरुष-समाज इन लड़कियों की मूर्खता का फ़ायदा उठाते हैं। यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। न हल्दी लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा। आवश्यकता ही क्या है लड़कों को कुछ कहने-बोलने की? वे तो बस इन्हें माॅडर्न, स्मार्ट, बेबी, बाबू की उपाधि दे-देकर फुलाते रहते हैं। बस . . . आज तक कभी सुना गया है कि इक्कीस वर्ष का कोई युवक घर से भागकर शादी-ब्याह करता हो? शायद ही ऐसा होता है। लेकिन, ऐसी लड़की अठारह वर्ष की होते ही घोषणा कर देती है कि अब मैं बालिग़ हूँ। अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हूँ। निर्णय भी कैसा? अपनी देह भर का . . . और कुछ पंक्तियाँ लिखकर छोड़ जाती हैं घर में। फिर गहने-रुपये समेटकर किसी का भी हाथ पकड़कर निकल जाती हैं पिता के घर से . . .। उसे कोई फ़िक्र होती है क्या कि उसके इस कृत्य से माता-पिता और भाई-बन्धु को कितनी पीड़ा होगी? कैसे जी पाएँगे वे समाज में? नह्, कभी नहीं . . .। अरे, उसे तो यह भी फ़िक्र नहीं होती है कि जिसके प्यार के सहारे वह घर छोड़ रही है, उसका प्यार कितना सच्चा है? कितने दिनों का है? आए दिन लड़कियों पर हो रहे ऐसे प्यार करने वालों के अत्याचार भी उसे नहीं दीखते हैं . . .। वह एक बार भी नहीं सोचती है कि जन्म देने वाले, लालन-पालन करने वाले माता-पिता से अधिक आत्मीय इस तरह उड़ा ले जाने वाला नहीं हो सकता . . .। इतना ही प्यार है तो बड़ों की सहमति लेने का धीरज और साहस क्यों नहीं है उसमें? . . . इनमें-से कोई प्रश्न उसके मन में क्यों नहीं उठता है? . . . क्यों नहीं सोच पाती हैं कि उससे पहले उसी के माता-पिता, चाची-चाचा, दादी-दादा भी तो जवान हुए थे। उन्होंने ऐसा प्यार क्यों नहीं किया था? या क्यों उनको प्यार करने वाला ऐसा कोई नहीं मिला था? . . . या यह कि उससे प्यार करने वाला कहीं उसके साथ धोखा तो नहीं करेगा?” 

करवट बदल कर लेटते हुए दीर्घ नि:स्वास छोड़ी बाबूजी ने और भर इच्छा साँस ली। जैसे कितनी देर से साँस नहीं ले पाए हों और फिर उसी चिंता के गह्वर में जा पैठे। 

“इतने प्रश्नों के भँवर में डूबने-उतराने की ज़रूरत ही क्या है? कितना अच्छा तो था कि घर के बड़े सब तरह से ऊँच-नीच जान-समझकर सम्बन्ध तय करते थे। तब विवाह मात्र दो प्राणियों का मिलन नहीं होता था। मधुर सम्बन्धसूत्र में दो परिवार और समाज भी बँधते थे। सम्बन्धों के निर्वाह का दायित्व भी दोनों ओर का बराबर हुआ करता था। उचित-अनुचित में दोनों की भागीदारी होती थी।

“यह सब तो ठीक है– था। फिर गड़बड़ाया कहाँ से?” 

एक नया प्रश्न कौंधा मानस में। बाबूजी उठकर बैठ गये। 

“हाँ, सब अचानक नहीं हुआ है।”

अतीत की ओर मुड़ चले वे। यादों के सफ़र पर निकले बाबूजी की भाव-भंगिमा बदल गयी। अब चिंता के बदले एक गंभीरता झलक रही थी मुख पर। मानस में चल रहे तर्क-वितर्क ने सचेतनता भर दी थी आँखों में। 

“पहले की लड़कियाँ – औरतें लिहाज़ करती थीं बड़ों का, पुरुषों का और समाज का। वे समर्पण भाव से लगी रहती थीं अपनी गृहस्थी को बनाने-सँवारने में। सुख में, दुख में समान रूप से। पीढ़ियों से यही चला आ रहा था। अँग्रेज़ों के शासन में भी नहीं बदला कुछ . . .। बदलता कैसे? तब तो अन्न के लाले पड़े हुए थे। अँग्रेज़ों के बूटों तले जान साँसत में थी। ये बेफिजूल की बात कहाँ से सोच पाते लोग? . . . ये सब तो भरे पेट के चोंचले हैं। उस समय का फ़ैशन था देशभक्ति और समाज के हीरो थे बलिदानी देशभक्त। युवा पीढ़ी उनका अनुकरण करती थी . . .। तब सामान्य लोगों को अंग ढँकने मात्र के वस्त्र होते थे किसी तरह। बस, लज्जा निवारण भर के लिए। आधा पेट खाकर या भूखे पेट भी देश आज़ाद करवाने की सनक थी सबमें। व्यक्तिगत आज़ादी की नहीं . . .। और . . . यह है व्यक्तिगत आज़ादी . . .? . . . थूः।”

मुख मुद्रा बदल गयी बाबूजी की। जैसे ढेर सारा कड़ुवा-कसैला स्वाद भर आया हो मुँह में। 

” नअ् . . . और भी बातें हैं।”

बाबूजी सुदूर अतीत से खिसक कर आगे आए मानो। ‘और भी बातें हैं’ पर एकाग्र हो गये। 

“आज़ादी के बाद जब देश और समाज सुस्थिर हो गया, तब . . . हाँ . . . तब . . . तब हमने भरे पेट की मस्ती शुरू की। झूठ-मूठ का दंगल। स्वयं अपने घर को उजाड़ने का। घर के भीतर बात-बेबात कलह करना, अपनी शीलवती, मर्यादित स्त्रियों को मूर्ख, अनपढ़, जाहिल, दो कौड़ी की, कह-कहकर अपमानित करना शुरू कर दिया। हम सिनेमा की हीरोइनों से उनकी तुलना करने लगे। हमें अपनी ही स्त्रियों के शील-स्वभाव में पिछड़ापन नज़र आने लगा। उनकी भर्त्सना के मौक़े ढूँढ़ने लगे। इससे विवश स्त्रियाँ उन हीरोइनों की बराबरी में असमर्थ होकर झुकते चले जाने को अपनी नियति मान बैठीं। लेकिन, उलाहना-प्रताड़ना या अकारण ही झुक जाने से तो वे शिक्षित और सुन्दर नहीं बन सकती थीं। अतः, मौन होकर सब सहती रहीं . . .। धीरे-धीरे दौर आया संयुक्त परिवार के टूटने का। विशेषकर शहर में नौकरी करता पुरुष अपने परिवार को साथ रखने लगा। तब स्त्री ने सम्बन्धों के जकड़न भरे वातावरण से मुक्त होकर अपने को अपने पति के अधिक पास पाया। तभी अपनी अक्षमताओं पर सोच-विचार का अवकाश मिला उसे। उसने फ़िल्म तारिकाओं की तरह के कपड़े और बनाव-शृंगार पर स्वयं को केन्द्रित किया . . .। शहर आकर थोड़ी-बहुत शिक्षा भी पाई . . . परन्तु, यह पर्याप्त नहीं था। तारिकाओं की तरह की ठसक के लिए उसे सुशिक्षित होना और आर्थिक रूप से सशक्त बनना ज़रूरी जान पड़ा। इस सोच का उन्हें लाभ नहीं मिला। कारण अनेक थे। लेकिन, इसी सोच के बल पर संकल्पित होकर उन्होंने अपनी बेटियों को आगे बढ़ाया। उन्हें शिक्षा-दीक्षा दी। ताकि उन्हें उलाहने न सुनने पड़ें . . .। और यह सब इतना आसान रहा क्या? क़िस्से-कहानियों की तरह? जैसे अभी बैठा-बैठा मैं सोच रहा हूँ . . .। नअ्, समाज का विचार-परिवर्तन कभी आसान नहीं होता है। न पहले, न अब। उसमें भी पुरुष प्रधान समाज में? समाज के अधिकांश भाग में स्त्रियों के लिए यह सब कल्पना ही बना रहा।”

बाबूजी की आँखों के आगे गाँव-घर के कई दृश्य घूम गये। उन्हें परे करते हुए विचारों की शृंखला को आगे बढ़ाते हुए सोचने लगे। 

“इस बीच स्त्रियों को अनेक तरह की यातनाएँ झेलनी पड़ीं। दहेज़-हत्या जैसे अमानुषिक कृत्यों से अख़बारों के पन्ने दशकों तक रँगे रहे। इसी तरह, जिस तरह आज प्रेमी के साथ लड़कियों के भागने और प्रेमी आदि के साथ मिलकर पति को काट डालने की घटनाएँ आम हो चली हैं . . .। ओह, स्त्रियों के साथ किस-किस तरह के अमानवीय कृत्य नहीं हुए हैं समाज में . . .? 

“याद करते हुए लज्जा आती है . . .। दहेज़-हत्या, नाबालिग़ से बलात्कार आदि से लेकर कन्या भ्रूण हत्या तक सब। तब भी, जब सर्वे स्त्री-पुरुष का अनुपात बतलाते हुए निरंतर स्त्रियों की संख्या में गिरावट की सूचना देते रहे . . .। किसी भी रीति-नीति से इनका निवारण नहीं हो पाया . . . इसी तरह की बातों व घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में एक नारीवादी स्वर उभरा और पूरी बुलंदी से उभरा। यह पश्चिमी देशों में पहले से ही पल-बढ़ रहा था . . .। शिक्षित समाज को तो यह आवश्यक लगा ही, सामान्य लोगों को भी इसमें कोई बुराई नहीं नज़र आई। क्योंकि, प्रताड़ित होने वाली कन्या–स्त्री उनकी भी आत्मीय थी। धीरे-धीरे मौन-मुखर समर्थन प्राप्त करता यह स्वर बुलंदी को छूने लगा . . . यहाँ तक तो कुछ भी अनुचित नहीं था।”

बाबूजी ने साँस लेकर पहलू बदला। चेहरे पर अब भी चिंता की, विचारों की गहनता की झलक स्पष्ट अंकित थी। उठकर उन्होंने टेबल पर ढँककर रखे हुए गिलास का पानी घूँट भरते हुए पिया। कुछ देर शांत बैठे रहे। मानो आगे बढ़ने के लिए स्वयं में ऊर्जा भर रहे थे या कि निरंतरता में घटनाओं को तरतीब से लगा रहे थे, कौन जाने? अब वे उठ खड़े हुए। कुछ देर तक चहलक़दमी करने के बाद आ बैठे अपने बिस्तर पर और फिर . . .

“और फिर शहरों में रहने के आदी परिवार बदल गए आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवेश की आवश्यकताओं को देखते हुए बेटे के साथ बेटी को भी कान्वेंट में पढ़ाने लगे। बेटी के भी हौसले बढ़ाने लगे . . .। तब भी . . . शिक्षा जगत की तमाम ऊँचाइयाँ प्राप्त करने के बाद भी, अंग्रेज़ीदाँ इन बेटियों के विवाह में दहेज़ की समस्या बनी ही रह गई . . .। अब उनके रंग-रूप, शील-स्वभाव के साथ एक नई योग्यता की माँग उठने लगी। वह यह कि आपकी पुत्री किस कंपनी में, किस पद पर है और वार्षिक कितने लाख पाती है? यहाँ आकर पुत्री के पिता तथा स्वयं लड़की का धैर्य भी जवाब दे गया। यह था भी हद से ज़्यादा। ‘पुत्री हि जाता खलु नाम कष्टं . . . कस्मै प्रदेयेति महान वितर्कः’ के मकड़जाल में फँसा पिता, पुत्री के ज्ञान-वैभव से गौरवान्वित पिता ने और झुकना, अनावश्यक तर्क-वितर्क में फिर-फिर फँसने से साफ़ मना कर दिया। ‘बस, अब और नहीं’ कहकर अपनी बेटी को स्वयंवरा होने का सुझाव दिया, जिसके लिए वह पहले से ही तैयार थी। बल्कि, अधिकांश युवतियाँ कई क़दम आगे बढ़ भी चुकी थीं। यहाँ आकर कुल-गोत्र, जाति-धर्म का बँधन पूरी तरह खुल गया। खुलना ही चाहिए था . . .। जब जाति-गोत्र वालों की नज़रों में वधू से अधिक दहेज़ का मोल हो, सामाजिक मर्यादा से अधिक प्रदर्शन प्रियता का मान हो तो केवल कन्या और कन्या के पिता का ही दायित्व होता है कुल-गोत्र और जाति-धर्म के निर्वाह का? . . . नह्, यह कैसे सम्भव है? . . . हाँ, परन्तु एक बार बन्धन खुल जाने से, प्रतिष्ठा भंग हो जाने से समाज को क्षति तो होती ही है . . . हुई भी है . . . हो रही है। अकथ कथा है इस प्रसंग की . . . फिर तो बाढ़ के पानी के-से तेज़ प्रवाह में समाज की कितनी ही रीतियाँ-नीतियाँ छिन्न-भिन्न होकर बिखर गयीं। तब बाढ़ के उतरे हुए पानी के साथ आई हुई और सब ओर फैल गई सड़ाँध मारती गंदगियों की ही तरह इस अराजकता से समाज में सब ओर फैल गई गंदगियों का अंबार लग गया।

“जाने कितने समय, श्रम और धैर्य से समाज को सुसंस्कृत किया गया होगा . . . सदियाँ लग जाती हैं। कितने नैतिक-वैज्ञानिक तर्कों-शोधों के निष्कर्ष सामने रखकर रीति-रिवाज़ बनाए जाते हैं, ताकि मानव जीवन अधिकाधिक सुखकर हो। सामाजिक जीवन संतुलित हो। श्रेष्ठ व श्रेष्ठतम संततियों से आदर्श समाज तथा राष्ट्र का निर्माण किया जा सके . . .। मानवता को महत्ता मिले . . .। जबकि, इन्हीं सामाजिकों के द्वारा क्रमशः सारे आदर्शों को धता बताते हुए अपनी भावी पीढ़ियों को अवनति के गर्त में धकेल भी दिया जाता है। हाय रे मानव! सब करके भी वापस आदिम रूप में पहुँच जाने वाला विवेकशून्य मानव! 

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