क्या हम अपने आप को बदल सकते हैं? 

01-11-2025

क्या हम अपने आप को बदल सकते हैं? 

पं. विनय कुमार (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या हम अपने आप को बदल सकते हैं तो हमारे मन में कई तरह के भाव आने लगते हैं। आज जब दीपावली का पावन त्योहार मनाने का सुंदर अवसर आया है तब यह सवाल और प्रासंगिक लगता है। वह इसलिए कि दीपावली अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलने वाला त्योहार है। अंधकार के दो रूप हैं—एक जो हमारे चारों ओर अमावस्या की रात्रि में फैला हुआ दिखता है और दूसरा हमारे भीतर का अंधकार जिसे हम अज्ञानता भी कर सकते हैं। आज दीपावली के अवसर पर यह सवाल और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है कि हम दीपावली के त्योहार को किस अर्थ में ग्रहण करते हैं? यदि हम इस सवाल को अपने आसपास के वातावरण को बदलने के अर्थ में ग्रहण करते हैं तब हमारे मन में यह विचार आने लगता है कि हम अपने चारों ओर इस अँधेरी रात को दीपक के क़तारों के माध्यम से प्रकाश युक्त करें। एक तो दीप जलाने की पुरानी परंपरा को लेकर जिसमें तेल और दिए की बाती के साथ दूसरा बिजली की बत्तियों के माध्यम से प्रकाश फैलाने को लेकर। इसके साथ-साथ जो महत्त्वपूर्ण बात हमारे सामने आता है वह है अपने आप को बदल डालने की बात। 

यह बदलना दीपोत्सव मनाने के दरम्यान हमारे भीतर आनंद, उमंग, उत्साह, आशा और ख़ुशियों का जो संचार होता है वह हमें अपनी उदासी और अपने निराशा भाव से हमें दूर करता है। वह हमें अपने भीतर की असफलता की जगह सफलता लाने का भी एक उत्तम प्रयास है जिसको लेकर आज के दिन घर में रंगोलियाँ बनाई जाती हैं। घर की साफ़-सफ़ाई की जाती है। रंग-रोगन कराए जाते हैं। दीप मालाओं से घर का हर कोना सजाया जाता है और मुख्य द्वार को हम लक्ष्मी के आगमन के लिए खुला छोड़ देते हैं बिल्कुल सुंदर और सुहावने रूप में। 

हमारा सवाल आज के दीपोत्सव के अवसर पर यह सोचने के लिए बाध्य करता है कि क्या हम अपने आप को बदल सकते हैं? बदलना हमारे भीतर का एक सराहनीय प्रयास है। एक महत्त्वपूर्ण उद्यम है इसके बारे में रहीम कवि बहुत पहले कह गए हैं:

विद्या धन उद्यम बिना कहे जो पावे कौन। 
बिना बुलाए ना मिले जो पंखे का पौन॥

ज़ाहिर है कि पहले के ज़माने में बिजली के पंखे नहीं होते थे उस वक़्त लोग अपने हाथों से पंखा झलकर हवा पाने का उद्यम करते थे। रहीम कवि की इस काव्योक्ति में हमें कुछ ना कुछ करने के उपदेश को पालन करने हेतु ज़ोर डालते हैं। इसके मूल में यही भाव है कि हम कुछ ना कुछ करेंगे तभी हमें इसका लाभ प्राप्त होगा। यदि हम बैठे रहेंगे तो हमें कुछ नहीं मिलेगा जैसे पंखे को ना डुलाया जाए तो हवा हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। 

आज हमारे मन में अपने आप को बदलने को लेकर जो सवाल पैदा हुआ है वह इस वजह से हुआ है कि हम अपने आप को बदल सकते हैं। 

जब प्रयास करेंगे तो वह अवश्य पूरा होगा। 

हम यदि बैठे हैं और खड़े होना चाहते हैं तो खड़े होने की कोशिश करेंगे और अवश्य खड़े होंगे और यदि चलना चाहते हैं तो चलने का प्रयास करेंगे तो अवश्य चल सकते हैं और किसी गंतव्य स्थान तक पहुँचना है और हम उसके लिए प्रयास करेंगे तब हम वहाँ अवश्य पहुँच सकेंगे। 

सवाल यह है कि क्या हम ऐसा करना चाहते हैं? सवाल सरल भी है और कठिन भी है। जीवन में हमें कुछ ना कुछ तो करना ही होगा। गीता कहती है: हमें कर्म करने का अधिकार है उसके फल की इच्छा करने का नहीं—कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

वहीं तुलसीदास की रामायण हमें बताती है:

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस कर सो तस फलू चाखा॥

कुल मिलाकर यह बात सिद्ध हो जाती है कि हमें कुछ करना है क्योंकि करना ज़रूरी है, क्योंकि हमारा जीवन कर्म प्रधान ही है और कुछ भी (कर्म) करने के क्रम में हमें अच्छे और बुरे कर्म के बारे में भी सोचना है और उसी के अनुसार आगे बढ़ना है। आगे बढ़कर अपने कार्य का संपादन भी करना है। 

अब हम अपने उस मूल प्रश्न पर आते हैं जिसमें मैंने इस बात पर ज़ोर डालने का प्रयास किया है कि क्या हम अपने आप को बदल सकते हैं? यदि हम इतिहास और पुराण उठा कर देखें तो निरंतर बदलाव से ही नई क्रांतियाँ आईं है, परिवर्तन में ही जीवन का सुख है जीवन की शान्ति है जीवन का आनंद है और परिवर्तन के माध्यम से ही हम अपने उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं और अपने उदर की पूर्ति भी कर सकते हैं और अपने जीवन को सुखमय भी बना सकते हैं क्योंकि हमें सुख पाना है शान्ति प्राप्त करनी है तो हमें कुछ ना कुछ करना ही होगा और जब हम कुछ करेंगे तब ही हमारे आसपास के वातावरण में बदलाव होगा। सच तो यह है कि इस तरह हमारे भीतर और आसपास का बदलाव हमारे जीवन को नई ख़ुशियाँ प्रदान करता है आराम और आनंद-सब कुछ देता है जो हमें चाहिए। 

गोस्वामी तुलसीदास की युवावस्था की एक प्रसिद्ध घटना हम सब परिचित हैं जब वे अपने यौवन काल में पत्नी के प्रति विशेष अनुरक्त थे और पत्नी के प्रेम में पागल बने तुलसीदास को भादों की अँधेरी रात तक का पता नहीं रहता और ऐसा कहा जाता है कि वे भादों की अँधेरी रात में उफनती नदी के रास्ते (केले के बहते स्तंभ के सहारे) ससुराल पहुँच गए थे जिस पर शायद कोई सर्प भी बैठा हुआ था और उन्हें इसका भान तक न रहा था लेकिन उनके द्वारा ससुराल (घर) पहुँचने पर पत्नी से मिलते ही उन्हें भयंकर डाँट मिलती है और उनकी पत्नी उलाहना भरे शब्दों में साफ़ कहती हैः

लाज ना लागत आपको दौड़े आयहु साथ। 
धिक्-धिक् ऐसे प्रेम को कहाँ करूँ मैं साथ॥

उनकी पत्नी ने उन्हें आगे समझाया कि प्रेम की जो धारा आपके भीतर बह रही है उस प्रेम को राम की भक्ति से जोड़ देते तो शायद तब आपको भवसागर पार करने का डर नहीं रहेगा और उनकी ये बातें उनके दिल को लग गई और उन्होंने तत्क्षण वापस लौट गए। उनका लौटना उनके अपने-आप को बदलने को लेकर था। उनके भीतर जो बदलाव की दृढ़ता और चुनौती आई वह हम सबों को कई रूपों में प्रेरित करने वाली है। जीवन में आगे बढ़ते हुए हमें ना जाने कितनी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, कितने तरह के कष्ट, कितने तरह के दुख, कितने तरह के लोगों के सहयोग, निंदा-शिकायत और न जाने कितनी तरह की अंत: पीड़ाएँ और अंतर्द्वंद्व हमारे आस-पास मौजूद रहते हैं जो यह सिद्ध करती है कि हम अपने आप को बदल सकते हैं, ज़रूर बदल सकते हैं और यदि हम बदल सकते हैं तो हमारे भीतर कई तरह की ऊर्जा प्रविष्ट होने लगेगी। 

गाँधी जी के भीतर भी यही बदलाव हुआ था जब ट्रेन में उनके साथ सौतेला व्यवहार किया गया था। इसी तरह जब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी के अपने बाल्यकाल में उनकी ही कक्षा में उस समय साथ-साथ पढ़नेवाले सहपाठी उनके साथ सौतेला कर रहे थे तब वे उसका विरोध तो नहीं कर सके थे किन्तु उनके मन में सामाजिक स्तर पर समानता के भाव लेकर विशेष चिंता हो गई थी। कालान्तर में वही भाव और विचार एक युगांतरकारी बदलाव को लेकर आया और उन्होंने भारत के संविधान में समानता के भाव और विचार को महत्त्व दिया। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसके लिए आज हर स्कूल और कॉलेज में भारत के संविधान की प्रस्तावना को बार-बार दोहराया जाता है जिसमें वही समानता को सामने रखा गया है। लेकिन व्यवहार में अभी भी कमियाँ है अभी भी ख़ामियाँ हैं जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। 

हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि जब हमें ठेस लगती है या जब हमें अपनी ग़लतियों का एहसास होता है या फिर ऐसा लगता है कि हमारे साथ कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ ग़लत हो रहा है अथवा ऐसा लगता है कि हम ग़लत राह पर हैं तब हमारे भीतर नूतन बदलाव की घंटी बजने लगती है। हम अपने आप को अन्य संशोधित और परिष्कृत दूसरे रूप में सामने लाने का प्रयत्न करते हैं। बहुत बार लोग अपनी ग़लतियों से सीख कर अपने भीतर बदलाव लाते हैं। बहुत बार दंडित होने पर लोगों के भीतर यह भाव और विचार आता है कि हमें अपने भीतर सुधार लाया जाना चाहिए और बहुत-बहुत कई-कई अन्य रूपों और कर्म के पश्चात हमारे भीतर ख़ुद को बदल लेने की आंतरिक प्रेरणा और भीतरी सुख प्राप्त हुआ है। 

आज की हर शिक्षा अपने भीतर को बदलने के लिए प्रेरित करती है। शिक्षा का मूल अर्थ ही है अपने भीतर बदलाव लाना, नया तथा सकारात्मक परिवर्तन लाना और यह बदलते जाने की प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। कहा जाता है कि शिक्षा निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा में सीखना, ज्ञान अर्जित करना, अपना व्यवहार बदलने और अपने आपको बदलने की प्रक्रिया में हम पढ़ते हैं, लिखते हैं, समझते हैं, आगे बढ़ते हैं नहीं। पाठ प्राप्त करते हैं और उसके मूल में हमारा ध्यान हमारे अपने सुख और शान्ति में, जीवन पर टिक जाता है। हम अधिक से अधिक सुखी रहना चाहते हैं। शान्ति में जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो इसके लिए ज़रूरी है हम अपने आप को बदलने की कोशिश करें और यह बदलने की प्रक्रिया 1 दिन में पूरी नहीं हो सकती है। क्या हर दिन, हर सप्ताह, हर महीने, हर वर्ष ही नहीं बल्कि हर एक क्षण और हर एक पल का भी उसमें योगदान होता है और जब हम अपने आप को बदलने के लिए बड़ी मेहनत और लगन से कोशिश करते हैं तो जीवन में निश्चित ही सकारात्मक परिवर्तन होते हैं और इस प्रकार से हमारे जीवन के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति सम्भव हो जाती है। 

आज समय बदल गया है और ऐसे समय में हमें लगातार ध्यान देने की ज़रूरत है। इसके लिए समाज का हर वर्ग और धर्म के लोगों का सहयोग ज़रूरी है। यह प्रयास विकसित भारत 2047 के महत्त्वपूर्ण सपने को साकार करने के समान है। 

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