इबारत
स्व. राकेश खण्डेलवाल
थाम पाये नहीं बोझ इक शब्द का,
रह गये ये अधर थरथराते हुए
स्वर थे असमर्थ कुछ भी नहीं कह सके,
कंठ में ही रहे हिचकिचाते हुए
पढ़ने वाला मिला ही नहीं कोई भी,
थीं इबारत हृदय पर लिखी जो हुई
भाव नयनों के विस्तार में खो गये
तारकों की तरह झिलमिलाते हुए
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