एक उदास जज

जयचन्द प्रजापति ‘जय’ (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

एक उदास जज को मैंने देखा
सब सुविधाएँ हैं
अच्छी सी तनख़्वाह है। 
 
नौकर चाकर
एक ख़ूबसूरत पत्नी
एक शानदार बँगला है। 
 
मैंने पूछा, 
आप फिर भी चिंतित हैं
चेहरे की लालिमा फीकी है
 
इस तरह 
व्यथा से युक्त जीवन देखकर
मैं हैरान हो गया। 
 
जज बोला, 
जिस न्याय करने की
इतनी तनख़्वाह लेता हूँ। 
 
इस अन्याय के बाज़ार में
मेरा न्याय
दब गया है। 
 
मेरा न्याय
अपंग सा हो गया है
यही सोचकर
मैं उदास हूँ। 

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