आँसू पी लिए
स्व. राकेश खण्डेलवाल
कोई ऐसा न था जो कि चुनता उन्हें, इसलिये अपने आँसू स्वयं पी लिये
कोई सुनने को तत्पर मिला ही नहीं, इसलिये हमने अपने अधर सी लिये
जो भी साये मिले, वो थे सब अजनबी जिनसे परिचय के धागे नहीं जुड़ सके
है कठिन ये डगर और लंबा सफ़र, हम हैं पाथेय बिन अग्रसर हो लिये
अपनी एकाकियत साँझ में ढाल कर
सींचते हम रहे प्यास अपनी सदा
एक अनबूझ प्रतीक्षा प्रतीक्षित रही
मेरी राहों के हर मोड़ पर सर्वदा
काँपती काँपती सी शिखा दीप की
रात के देख तेवर झिझकती रही
चाँदनी थी विलग चाँद के द्वार से
झुरमुटों में सितारों के छुपती रही
और हम अँजुरि में भरे साँस का क़र्ज़ गिन गिन के रखते हुए जी लिये
कोई सुनने को तत्पर मिला ही नहीं, इसलिये हमने अपने अधर सी लिये
धार नदिया की उँगली बढ़ाती रही
पर न थामा किनारों का दामन कभी
पंखुड़ी पंखुड़ी फूल बिखरा किये
छू न पाये मगर होंठ पर की हँसी
गुत्थियाँ बन गणित की उलझते रहे
भाव मेरे प्रकाशित हो न सके
ज़िन्दगी बन के शतरंज शह से घिरी
चाल हम एक घर भी नहीं चल सके
पात पतझड़ के नभ में उड़े एक पल, और पलभर के सहचर हो हम भी लिये
कोई ऐसा न था हो कि चुनता उन्हें, इसलिये अपने आँसू स्वयं पी लिये।
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