लुकाछिपी सूरज-बादल की

15-12-2019

लुकाछिपी सूरज-बादल की

शकुन्तला बहादुर (अंक: 146, दिसंबर द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)

प्रात: सूरज चमका नभ में, 
जग को भी चमकाया।
विहँस  उठी ये  धरा तभी, 
जब फूलों को महकाया॥


मन अपना तब हुआ प्रफुल्लित,
कवि ने गीत सुनाया।
क्षण भर ही आनन्द लिया था, 
फिर बादल आ छाया॥


ढका सूर्य को बादल ने तब, 
अंधकार भी बढ़ आया।
जल-धारा फिर लगी बरसने, 
धरा  को  भी  नहलाया॥


ऊष्मा बदली शीतलता में,
पवन झकोरा भी आया।
लगे  झूमने तरुवर  भी तो, 
मेरा  मन तब घबराया॥


ओह !अरे! सूरज फिर चमका,
तन-मन फिर जीवन्त हो गया।
बादल छिपे कहीं पर जाकर, 
आसमान फिर स्वच्छ हो गया॥


कैलिफ़ोर्निया का मौसम ये,
हम सबको ही छलता है।
पल में  सूरज, पल में  बादल, 
आता जाता रहता है॥


ज्यों उजास को अँधियारा है, 
आकर ढकता रहता।
वैसे ही उजियारा आकर,
अँधियारे पर है छा जाता॥


ये जग भी तो द्वन्द्वात्मक है, 
चक्र सदा सुख-दु:ख का चलता।
 दिन  के  बाद रात आती है, 
रात के  बाद  सदा  दिन आता॥


मन रे! मत हो तू उदास यों, 
आशा से ही जीवन चलता।
जहाँ निराशा छाई मन पर, 
जीवन भी तो रुक सा जाता॥


आँख-मिचौनी सुख-दु:ख  की  
भी,ऐसे ही चलती है 
आशा  के  संग  सदा  निराशा, 
भी  आती  रहती  है॥


इसी तरह  से  सूरज-बादल, 
छिपते सामने आते हैं।
सदा उल्लसित रहकर ही हम,
जीवन में सुख पाते हैं॥


मंथन हुआ था जब सागर का,
विष-अमृत दोनों संग आए।
विष पी,अमृत दिया सुरों को, 
शिव तब महादेव कहलाए॥

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