इस व्यवस्था की ऐसी की तैसी

15-07-2020

इस व्यवस्था की ऐसी की तैसी

डॉ. महेश आलोक (अंक: 160, जुलाई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

वह चुपचाप चली जा रही है
राष्ट्रीय राजमार्ग पर


पसीने से लथपथ उसका शरीर अभी इतना जीवित है
कि हवा भी डर रही है
कि हल्का सा झोंका भी उसकी जिजीविषा को
भंग न कर दे


हवा का शरीर भी ढीला पड़ गया है    


वह लगभग निर्लिप्त हो गई है उसे भूख नहीं लगती
बच्चे को लगती है। पैरों के छालों से उसे दुख नहीं होता
बच्चा कराहता है और तभी सड़क के हृदय के दरकने
की आवाज़ आती है जिसकी गूँज से हमारे समय में
लिखी गईं तमाम कविताओं की धज्जियाँ उड़ जाती हैं


बच्चे को अपने ब्रीफ़केस पर लटकाए वह ढो रही है उसे
एक वस्तु की तरह


इस चिलचिलाती धूप में आकाश को
छाते की तरह टाँगे हुए
वह चुपचाप चली जा रही है
राष्ट्रीय राजमार्ग पर


कितनी साँसें छोड़ीं और लीं उसने अपने घर पहुँचने में
इसकी गिनती ईश्वर के पास भी नहीं है
रोशनी की अन्तिम किरण तक वह अपनी साँसें
ले रही है और छोड़ रही है


मैं उस स्त्री में अपनी माँ की छवि देखता हूँ
और निर्लिप्त नहीं रह पाता हूँ


मैं ग़ुस्से में चिल्लाना चाहता हूँ
इस व्यवस्था की ऐसी की तैसी
पर चिल्ला नहीं पाता हूँ


ब्रीफ़केस पर पेट के बल लेटा हुआ बच्चा जाग न जाए
इसलिए चुप रहता हूँ

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