ये समय की कैसी आहट है!
हनुमान गोपये समय की कैसी आहट है,
हर ओर बस घबराहट है।
हवा में ज़हर का कोई क़तरा है,
साँस लेने मे भी बहुत ख़तरा है।
हर तरफ़ इक अजीब सी ख़ामोशी है ,
चुप हैं सब और थोड़ी सरगोशी है।
लोग हर उम्र के रोज़ मर रहे,
जो ज़िंदा हैं ख़ौफ़ में हैं और डर रहे।
डॉक्टर जो भगवान बन लड़े हैं,
वो भी हाथ जोड़े असहाय से खड़े हैं।
अस्पतालों में जगह नहीं लंबी क़तार है,
सड़कों पे दम तोड़ रहे लोग बस हाहाकार है।
दवा जो जीवन देती थी अब साथ छोड़ चली,
ज़िंदगी ज़िंदगी से जैसे मुँह मोड़ चली।
मानवता हर रोज़ हार रही है,
रिश्ते नाते सबको मार रही है ।
किसी अपने का फोन जो देर रात बज उठता है,
दिल बैठ जाता है मन सिहर उठता है।
जाने कितने ख़ूबसूरत लोग नहीं रहे,
जो रह गये उन्होंने भी कितने दुख सहे।
अब भी मृत्यु का ये खेल नहीं रुक रहा,
काल का मस्तक तनिक भी नहीं झुक रहा।
श्मशानों मे चिताएँ जल रहीं धुँआ उठ रहा,
कोई मय्यत की दुआ पढ़ रहा, कहीं जनाज़ा उठ रहा।
दुनिया बनाने वाले अब तेरा ही सहारा है,
प्रयास सबने बहुत किया पर हर कोई हारा है।
भूल जो हुई हो हमसे अब माफ़ करो,
हवा में जो गंध फैली उसको अब साफ़ करो।
काल को दो आदेश की अब रुक जाए,
जीवन के आगे अब मृत्यु झुक जाए।
बहुत लंबी रात रही अँधेरा अब दूर करो,
सूरज की नव किरणों से तम का अहं अब चूर करो।
थम गयी जो सरिता वापस अपनी लहरों को उबारे,
साफ़ कर अपने सफ़ीने माँझी भी उठा सकें पतवारें।
सहम गयी जो ज़िंदगी वापस अपने पंख पसारे,
जीत जाएँ सबके हौसले और दुख सबके अब हारें।