मैं कवि हूँ कविता गाऊँगा
हनुमान गोपमैं कवि हूँ, कविता गाऊँगा,
लफ़्ज़ों के बाण चलाऊँगा।
व्यथा दुखियों की तुम्हें,
मैं गाकर रोज़ सुनाऊँगा।
मैं कोई राजकवि नहीं जो,
क़सीदे पढ़ ख़ुश हो जाऊँगा।
मैं तो फक्कड़ शायर हूँ,
प्रश्न शासन पर भी उठाऊँगा।
में साधक वीणापानी का,
पाठक ग़ज़ल औ कहानी का।
मेरी क़लम सदा सच बोलेगी,
स्याही परत सत्य की खोलेगी।
मेरी कविता आँखों में उतरेगी,
लहू की तरह ये तो बिखरेगी।
शोषित लोगों का ढाल बनेगी,
शासन के समक्ष सवाल बनेगी।
मैं लिखूँगा लोगों की लाचारी,
युवाओं की पीड़ा और बेकारी
गाऊँगा किसान के दुख को,
भ्रष्ट सरकार के भी रुख़ को।
क्यों स्कूलों में शिक्षा रही नहीं,
क्यों व्यवस्था सरकारी सही नहीं।
क्यों दवा का इतना अकाल है,
क्यों हर तरफ मचा बवाल है।
क्यों फैली है यहाँ इतनी लाचारी,
क्यों बेबस रोती जनता बेचारी।
क्यों मृत्यु पर भी मान नहीं मिलता,
उचित यहाँ सम्मान नहीं मिलता।
में भ्रष्टाचार का सवाल उठाऊँगा,
शासन को भी आँख दिखाऊँगा।
में अदब की महफ़िल सजाऊँगा,
नई पीढ़ी को अदब सिखाऊँगा।
में कवि हूँ, कविता गाऊँगा,
रौशनी हर तरफ़ फैलाऊँगा।
अंधकार के इस आँगन में,
चिराग ज्ञान का जलाऊँगा।
में कवि हूँ, कविता गाऊँगा।
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