मैं धरती पुत्र किसान हूँ
हनुमान गोपमैं धरती पुत्र किसान हूँ,
वसुधा की पीड़ित संतान हूँ।
धरती का सीना चीरकर,
बीज सृजन का में बोता हूँ।
फसलों को लहू से सीचकर,
अन्न सबके लिए संजोता हूँ।
कहने को तो मैं अन्नदाता हूँ,
भोजन देने वाला विधाता हूँ।
मेरी हालत हुई बहुत ख़राब है,
रूठी क़िस्मत और टूटे ख़्वाब हैं।
बच्चे हमारे बेबस और लाचार,
ना शिक्षा पूरी, ना कोई व्यापार।
बिटिया के ब्याह में सब बिक गया,
समय दुख थोड़ा और लिख गया।
प्रकृति का कोप भी हमें सहना है,
कभी सूखा, कभी बाढ़ में बहना है।
ओले की मार से फ़सल मर जाती है,
ग़लत नीतियों से सब गल जाती है।
क़र्ज़ हमपर इतना हो गया,
जीने से मरना सरल हो गया।
हमारे नाम पर होती राजनीति,
बनती नहीं हित में कोई नीति।
हमारे नाम पर बस चुनाव होते,
सबके अपने अपने दाव होते।
चुनाव उपरांत कोई नहीं पूछता,
खेतों में किसान वैसे ही जूझता।
सरकारों से बस इतनी इल्तिजा है,
ज़िंदगी हमारी अब तो हुई सज़ा है।
हमारे लिए भी अब कुछ काम करो,
थोड़ी राशि किसानों के भी नाम करो।
नीतियों में भी कुछ परिवर्तन हो,
नहीं केवल चुनावी प्रदर्शन हो।
जीवन में हमारे ऐसा सुधार हो,
हम पर किसी का नहीं उधार हो।
हमारे बच्चे भी फूले फले नहाएँ,
ख़ुशियाँ हमारे जीवन में भी आएँ।
अब हम भी दो रोटी पेट भर खाएँ,
चैन से थोड़ा तो हम भी सो पाएँ।
मैं धरती पुत्र किसान हूँ,
वसुधा की पीड़ित संतान हूँ।
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