विचित्र व्यथा
भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’
वेद विदित साक्षी—जल, अग्नि, वायु, आकाश हो गये
वे साक्षी ही रहे, तुम इनमें कहाँ विलीन हो गये
सारे विषय आकर्षण विहीन हो गये
हम तो जाने कब से तुम में विलीन हो चुके
तुम कहाँ, हम कहाँ रह गये
इसी सूक्ष्म में से तुम आकार लो, प्रत्यक्ष चले आओ
साक्षी हो, देखो, हम कब से तुम में लीन हो गये।
कोई क्या जानेगा? मूर्त से अमूर्त हो जाना
कोई कैसे जानेगा? जान से, अनजान हो जाना
इसी सूक्ष्म से आकार लो, साक्षी बनो
मेरे प्यार की, अपने प्यार से तुलना करो
एक बार आकर कह जाओ, चलो जाने-जाना।
तुम सार जीवन के, सारा सार में छोड़ गये
ये विचित्र विरह व्यथा सहनीय तो नहीं,
कहाँ से शक्ति समेटूँ, इस दुर्बल हृदय में,
कुछ तो संकेत दो, कुछ तो धीर धराओ,
चले आओ चले आओ!