स्पंदन

भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’ (अंक: 247, फरवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जिस देह पर आपकी, दूर से पड़ रही दृष्टि
रोम रोम को, कंपित कर देती थी
त्वचा पिघल कर, आपके स्पर्श को आतुर हो जाती थी
वही, अब कछुये की ढाल सी ओढ़ कर
सब ओर विचरण कर आती है,
उस कुछ नहीं होता।
 
देखे को अनदेखा करना, इसे आ गया है,
शीत-ताप से अविचलित सी होती है।
हाँ, शीतल पवन चेहरे को जगाता-सा है
प्रातः की किरणें चेहरे को, 
जोगिया रंग देने में प्रयासरत हैं
लगता है हृदय तक जाने वाली,
धमनियाँ स्पन्दित नहीं होतीं।
तुम्हारे ‘आभास’ को निरुत्तर कर
तुम तक आना चाहती हूँ।

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