वन्य प्राणियों की शोकसभा
डॉ. कौशल श्रीवास्तव
(भूमिका: ऑस्ट्रेलिया के वन्य प्रदेशों में जंगली आग लगना एक प्राकृतिक घटना है लेकिन जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, के कारण इसकी तीव्रता भयावह होती जा रही है। वन्य संपदा के विनाश के साथ ही वन्य प्राणियों की दुखद दशा भी उतनी ही दर्दनाक है। वर्ष 2020 के आगमन के साथ ही विक्टोरिया प्रदेश भीषण जंगली आग से कई दिनों तक जूझता रहा; जिसमें करोड़ों पशु-पक्षी अग्नि की ज्वाला में जल गये, करोड़ों घायल हो गये, अनगिनत वृक्ष झुलस गये। इसी दृश्य के आलोक में यह रचना लिखी गयी है जो काल्पनिक होते हुए भी संवेदनशील है, और शायद वस्तुपरक भी। इसकी शुरूआत होती है एक परिकल्पना से: वन्य प्राणियों ने भी शोक सभा की होगी लेकिन उनकी भाषा मनुष्य की समझ से बाहर है। उसी कल्पित शोक सभा का एक चित्रण।)
भीषण जंगली आग की ज्वाला कई दिनों के बाद अंतिम साँस ले रही थी। अग्निशामक दल के अथक प्रयास, संसाधनों के उपयोग, आकाश से रासायनिक गैसों के छिड़काव, विदेशी दक्ष दस्तों की मदद, व्यापक जनता का सहयोग, इत्यादि सभी का योगदान प्रसंशनीय था। कई दिनों तक आकाश में फैला काला धुआँ शहरों के वातावरण को प्रदूषित करता रहा, हरियाली का प्राकृतिक रंग धूमिल हो रहा था, विस्तृत वन्य प्रदेश में उदासी थी जैसे पेड़-पौधे भी अंतर्मन से दुखित थे, पशु-पक्षी अपनी रक्षा के लिए इधर-उधर बिखर गये थे या प्राण त्याग चुके थे, इत्यादि। धीरे-धीरे प्रकृति अपनी सहज स्थिति में आ रही थी, समय सभी दुखों की दवा है।
आज शोक सभा का दिन था। अनेकों विशाल पेड़ कंकाल की तरह खड़े थे, पत्ता विहीन। बीच-बीच में कहीं-कहीं बरगद या पीपल के पेड़, आंशिक रूप से पत्ता विहीन होकर भी, छाया प्रदान कर रहे थे। उन्हीं के नीचे जंगल के निवासी पशु-पक्षी इकट्ठा हो गए, उनकी स्वाभाविक चहल-पहल क्षीण हो गयी थी। व्यथित हृदय, करुणामय भाव, और अकेलापन का एहसास उनके चेहरों पर व्याप्त था। उन्होंने एक दूसरे को अपने संकेतों से अभिवादन किया होगा; काश हम मनुष्य समझ पाते!
सभापति के आसन पर एक महिला कंगारू बैठी। स्वतः उछल-कूद मचाने वाली, तेज़ गति से भागने वाली, ऊर्जाशील जानवर, आज शांतचित्त बैठी थी—मन ही मन अश्क बहाती। अगली पंक्ति में बैठा ‘इमू’ बेचैन द्रवित हृदय से बोल उठा, “हे कंगारू बहना, तुम्हारी उदर-पेटी ख़ाली दिखती है। कहाँ गए वे मासूम बच्चे? क्यों उनको छोड़ दिया?”
“जंगल की ज्वाला में शायद भस्म हो गये या भूखे-प्यासे मृत्यु को प्राप्त हो गये। कई दिनों से उनको खोज रही हूँ, मेरी दृष्टि धुँधली हो गयी है, मेरी जीवन शक्ति कमज़ोर पड़ रही है। पूरा वन्य प्रदेश शापित हो गया है, जलवायु परिवर्तन ने इसे वीरान बना दिया है। मेरे अनेकों संगी-साथी भी कहीं लुप्त हो गए हैं, शायद उनके प्राण भी ख़तरे में हैं।” इतना कहते-कहते सभापति कंगारू की आँखों से आँसू निकल पड़े।
इमू की आँखें भर आयी। मुश्किल से उसने कहा, “मेरा पंख भी झुलस गया है, पैरों में घाव हो गये हैं। मेरे लाखों पक्षी साथी मृत्यु की झोली में सो गये, लाखों जानवर भी अग्नि में जल गये। लाखों दर्द से कराह रहे हैं, उनको सांत्वना देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं केवल भावनाएँ हैं। तुम्हें भी वही आत्मीय भावना और संवेदना समर्पित करती हूँ।”
एक जीर्ण-शीर्ण, भोला-भाला, पेड़ों पर रहने वाला, फूल-पत्ती खाने वाला, जंगल का अनुपम प्राणी, ‘कोआला’ हिम्मत करके किसी के साथ सभा में आया था। उसने कहा, “मेरा बच्चा मेरी गोद में गहरी नींद में सोया था। सुबह हुई, पर उठा नहीं—वह तो मृत पड़ा था! मुझे याद है चार दिनों से खाना खोज रहा था किन्तु आसपास के वृक्ष के पत्ते झुलस गये थे, कन्दमूल खोजना भी दुष्कर था। मैं विक्षिप्त हूँ, ऊर्जाविहीन हूँ, मृतप्राय हूँ, चंद दिनों का मेहमान हूँ। आज मैं अपने जंगलवासियों को अंतिम प्रणाम कहने आया हूँ।” इतना कहते-कहते वह बेहोश हो गया।
इसी समय हवा का एक झोंका आया और साथ में पानी की कुछ बूँदें भी थीं। मानो वृक्ष से आँसूँ टपक पड़े! वृक्षों में भी जीवन होता है, उनके सांकेतिक अश्क और उनकी पीड़ा को समझना मानव बुद्धि से परे है। सभा में कुछ क्षणों के लिए चुप्पी छा गयी, यह आत्मचिंतन का समय था, शायद सभी मृतकों के प्रति श्रद्धांजलि दे रहे थे।
चुप्पी तोड़ते हुए पिछली पंक्ति में बैठे एक बंदर ने कहा, “हे सभापति महोदया, मैं ऊँचे वृक्षों पर चढ़ सकता हूँ और उनके फल तोड़कर खाना मेरी दिनचर्या है। इस जंगली आग की ज्वाला से भयभीत होकर मैं अपने साथियों के साथ दूर चला गया था। अन्य वन्य प्राणियों की दर्दनाक दशा सुनकर हमलोग अत्यंत मर्माहत हूँ। हम किस प्रकार उनकी मदद कर सकते हैं? उन्हें फल-फूल पहुँचाना मेरे लिए सहज होगा।”
“हे बंदर भाई, तुम्हारी मदद का आश्वासन स्वागत योग्य है। तुम दयालु हो, और होशियार भी। मैंने सुना है आधुनिक मनुष्य के पूर्वज बंदर थे; शायद हज़ारों-लाखों वर्ष पहले दोनों एक ही परिवार के सदस्य थे। फिर मनुष्य क्यों स्वार्थी हो गया? क्यों वन्य प्राणियों का दुश्मन बन गया? प्रकृति का शोषणकर्ता बन गया?”
आश्चर्यचकित होकर बंदर ने कहा, “मैंने आपकी बात नहीं समझी। मेरे वंशज क्रूर कैसे हो सकते हैं?”
“ग्लोबल वार्मिंग और विनाशकारी जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मनुष्य की विलासिता है, वह प्राकृतिक संसाधनों का लगातार अवांछित दोहन कर रहा है जिसमें जंगलों की कटाई शामिल है, जंगली आग की बढ़ती विभीषिका भी उसी की देन है। पशु-पक्षी का प्राकृतिक परिवेश नष्ट हो रहा है, सिकुड़ रहा है। क्या यह मनुष्य की क्रूरता नहीं है?” सभापति कंगारू के स्वर में वेदना की स्पष्ट झलक थी।
सभा के वातारावण में अदृश्य शोक की लहर थी, सभी के चेहरों पर प्रश्न थे। आगे क्या होगा?
अंत में सभापति महिला कंगारू ने अपने संदेश में कहा:
“ऑस्ट्रेलिया की मानक प्रतीक, इस धरती की बाला हूँ
इसके सुख-दुख की भागी, सदियों से सम्मानित हूँ
‘इमू’ और ‘कोआला’ भी हैं इस महादेश के वंशज
अन्य हज़ारों पशु-पक्षी हैं, इस वीरान जगत के आभूषण।
श्रद्धा पुष्प उनको अर्पित हैं, जिसने भी प्राण गँवाएँ हैं
परोपकार करने वाले शत-शत प्रणाम के क़ाबिल हैं
हरा-भरा यह जंगल हो, यह संकल्प सबों का हो
पशु-पक्षी और मानव जाति–दोनों के मार्ग सुगम हो!”
कंगारू (Kangaroo), इमू (Emu) और कोआला (Koa।a) ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रीय प्रतीक हैं।