देवलोक में हलचल
डॉ. कौशल श्रीवास्तव(स्थान एवं सज्जा – देवलोक का भव्य सभागार, स्वर्ण सिंहासन पर राजा इन्द्र विराजमान, उनके दायें और बायें दो अन्य स्वर्ण सिंहासन विशिष्ट मेहमानों के लिए सुरक्षित। अन्य 20-25 देवतागण अपने आसन पर बैठ चुके हैं, कई सचेत आदेशपाल और प्रहरी भी सिंहासन की ओर मुख़ातिब हैं। सभासदों में उत्सुकता है, यह सभा अल्प सूचना पर बुलाई गयी है और इसके कार्यक्रम की सूची अज्ञात है। नेपथ्य से आवाज़ आती है – देवलोक की सभा आरम्भ होती है; मंच पर परदा उठ जाता है।)
राजा इन्द्र (मौन भंग करते हुए):
आप सभी देवतागणों का स्वागत है। यह सभा अल्प सूचना पर बुलाई गयी है, इसके लिए हुई असुविधा के लिए मुझे खेद है।
कई देवतागण एक साथ बोल उठे:
हे कृपालु महाराज, हमारी असुविधा के लिए खेद जताना आपकी महानता और संवेदना का प्रतीक है, हम सभी इसके लिए आभारी हैं। कार्यसूची की पूर्व जानकारी नहीं होने से हम सबों में व्यग्रता है, क्या कोई संकटपूर्ण परिस्थिति आने वाली है?
इन्द्र:
चिन्ता नहीं करें, धैर्य रखें। आज की सभा देवलोक के अतिपूज्य विशिष्ट निवासियों के आग्रह पर बुलाई गयी है और उनकी शिकायतों का स्पष्ट ज्ञान मुझे भी नहीं हैं। उनके आने में थोड़ा विलम्ब होगा, तब तक आप परस्पर विचार-विमर्श करें और सोमरस का रसास्वादन करें।
शीघ्र ही एक प्रहरी ने सूचना दी:
देवताओं में श्रेष्ठ भगवान शिव, पालनकर्ता भगवान विष्णु, मुरलीधर भगवान कृष्ण, और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की सवारी प्रांगण में प्रवेश कर चुकी है।
(इतना सुनते ही उनके स्वागत के लिए राजा इन्द्र सभागार के दरवाज़े तक आ पहुँचे; अन्य देवतागण भी अपने स्थान पर व्यवस्थित हो गए।)
राजा इन्द्र:
आप सभी विशिष्ट महानुभावों का स्वागत है; कृपया अपना आसन ग्रहण करें और सभा की मर्यादा बढ़ाएँ।
(शिव और विष्णु ने इन्द्र के दाहिने तरफ़ की कुर्सियों पर आसन ग्रहण किया, कृष्ण और ब्रह्मा बायीं तरफ़ की कुर्सियों पर।)
हे देवश्रेष्ठ शिव, यदि सभा का आरम्भ आपकी वाणी से हो तो अत्यन्त शुभ होगा।
शिव:
हे इन्द्र, राजा की वाणी आज्ञा के समान होती है। क्या आपको पता है कि पृथ्वीलोक पर अनेकों प्रतिकूल परिवर्तन हो रहे हैं?
इन्द्र:
मेरे गुप्तचर पृथ्वीलोक पर भ्रमण करते रहते हैं, किन्तु उन्होंने कुछ भी अनहोनी बात नहीं बताई है। मुझे यह भी पता है कि देवलोक के अनेकों सम्भ्रांत निवासी पृथ्वीलोक पर छुट्टियाँ बिताने जाते हैं, जिस प्रकार वहाँ के निवासी कश्मीर, स्विट्ज़रलैंड, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के रमणीक स्थानों पर शैलानी बनकर जाते हैं।
शिव:
राजा इन्द्र, आपने बिलकुल ठीक कहा। पृथ्वी की रमणीयता अति लुभावनी है, मैं भी पत्नी के साथ ग्रीष्म ऋतु में कैलाश पर्वत पर निवास करना पसन्द करता हूँ। आपको पता होगा की पार्वती हिमालय की बेटी कहलाती है, इसलिए वह स्थान मेरे लिए तीर्थ के समान है!
इन्द्र:
फिर कोई कष्ट? किस दुष्ट ने आपके विश्राम में विघ्न डालने की चेष्टा की? मैं उसकी जान ले लूँगा। प्रभु, मेरी शंका दूर कीजिए।
शिव:
हे इन्द्र, मेरी बात ध्यान से सुनिए। उद्वेलित होने से बुद्धि का ह्रास होता है। मुझे गर्मी बरदाश्त नहीं होती है; इसलिए कैलाश पर्वत पर उज्जवल, स्वच्छ, बर्फ़ से आच्छादित, विशाल प्रांगण के बीच ध्यान-योग करता हूँ और ब्रह्माण्ड की शून्यता का आनन्द लेता हूँ। बीच-बीच में अपनी पत्नी के साथ ताण्डव नृत्य करता हूँ जिसकी कल्याणकारी ऊर्जा सौर मण्डल में फैलती है। इस बार मैंने देखा वायुमंडल दूषित है, हिमपात सीमित है, ग्लोबल वार्मिंग का प्रकोप है, और जहाँ-तहाँ मनुष्य का पद-चिन्ह स्थापित है। कहीं-कहीं ‘कोक’ के ख़ाली डिब्बे दिख जाते हैं, तो कहीं मल-मूत्र की दुर्गन्ध आती है! इसलिए मैं क्रोधित हूँ और ‘तीसरी आँख’ खोलने पर विवश हूँ।
इन्द्र:
देवश्रेष्ठ शिव, अपने क्रोध पर अंकुश रखें अन्यथा पूरी मानवता भष्म हो जायेगी। समुद्र मंथन से निकले विष को आत्मसात करके आपने सम्पूर्ण विश्व का कल्याण किया था, फिर इसके विनाश का कारण आप कैसे बन सकते हैं? थोड़ा सोमरस का सेवन कीजिए, चित्त को शान्ति मिलेगी। तबतक मैं भगवान् विष्णु से परामर्श करता हूँ।
(इन्द्र विष्णु से कुछ कहते नज़र आते हैं।)
विष्णु:
मैं विश्राम मुद्रा में अर्धांगिनी लक्ष्मी के साथ हिन्द महासागर के बीच कमल सदृश्य मनोरम नाव में भ्रमण करता हूँ। चिर निद्रा में सोते हुए भी अनन्त नीले सागर का भव्य दृश्य, आकाश और पृथ्वी का आलिंगन, तथा क्षितिज पर उगते सूरज का दिव्य चमत्कार देखता हूँ। इस नैसर्गिक आनन्दमय अनुभूति से मेरे अन्दर नई ऊर्जा का संचार होता है जिसका वर्णन शब्दों में करना मुश्किल है।
इस बार मैंने देखा विशाल जहाज़ों का आवागमन जो महासागर का कलेजा चीरते हुए वातावरण को आन्दोलित करते हैं, दूषित करते हैं, और सागर के गर्भ में स्थित जीव-जन्तुओं को अकारण नष्ट करते हैं। इसके साथ ही मैंने देखा समुद्री दस्युओं का आक्रमण और सुना जहाज़ों में सवार मनुष्यों की दर्दनाक चीत्कार। भय और आतंक के ऐसे अभूतपूर्व साम्राज्य की कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। सच्चाई तो यह है कि मैं भयभीत हो गया, अपनी नाव तेज़ी से भगा लाया, और यात्रा भंग करके देवलोक लौट आया।
इन्द्र:
हे सर्वद्रष्टा विष्णु, आपके कथन ने तो मुझे भी क्षणिक रूप से भयभीत कर दिया है। देवलोक पूर्ण सुरक्षित है, आप चैन से अपनी नींद पूरी कीजिए। थोड़ा सोमरस का सेवन इसमें सहायक होगा।
(इन्द्र के इशारे पर एक परिचारिका सोमरस का स्वर्ण कलश लाती है।)
विष्णु:
हे इन्द्र, बुद्धिश्रेष्ठ कृष्ण भी कुछ कहने के लिए उत्सुक दिखते हैं। उनका अनुभव और ज्ञान प्रासंगिक होगा।
इन्द्र:
हे मुरलीधर, कर्मयोगी कृष्ण! अपनी बात अविलम्ब कह डालिए। प्रतीक्षा कष्टदायक होगी।
कृष्ण:
मैं अपनी छुट्टी वृन्दावन की पहाड़ियों में बिताता हूँ। बाँसुरी बजाता हूँ और इसके मधुर स्वर झंकार के बीच गोपियों के साथ नृत्य का आनन्द लेता हूँ। मनुष्य के साथ-साथ चतुर्दिक में फैले पशु-पक्षी भी इस अलौकिक स्वर का अमृत पीते हैं; मुझे सन्तोष होता है तथा अपने अस्तित्व का आभास होता है। पिछली बार मैंने पाया कि शोरगुल, कोलाहल और लाउड स्पीकर के निरन्तर गर्जन के बीच मेरी बाँसुरी का स्वर खोया-खोया था। गोपियाँ ग़ायब थीं, उन्हें अपहरण की चिन्ता थी। मैं सोचमग्न हूँ – इस सामाजिक प्रदूषण का निदान क्या है? शायद देश के अन्य भागों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं होगी।
(कृष्ण के इस कथन के बाद सभागार में मौन का आलम छा जाता है।)
सभा का मौन भंग करते हुए एक प्रबुद्ध देव ने कहा:
जहाँ स्वयं भगवान् ने कई अवतार लिए हैं उस धरती की इस दयनीय दशा के अनेक कारण हैं, जिनमें जनसंख्या विस्फोट एक प्रमुख है।
इतना सुनते ही इन्द्र ने यमराज से पूछा:
क्या मनुष्य अमरत्व के क़रीब है या तुम्हारा कार्य अधूरा है, शिथिल है?
यमराज:
मनुष्य अति चालाक हो गया है, उसे पकड़ना आसान नहीं है। मैं सचेत हूँ, किन्तु परिस्थितियाँ विपरीत हैं। कुछ गम्भीर बातें आपको सुनाता हूँ।
चन्द दिनों पहले मैं एक व्यापारी को पकड़ने मृत्युलोक गया था – उसका जीवनकाल ख़त्म हो रहा था। मैंने देखा कि वह ‘मैकडोनाल्ड्स’ में खाना खा रहा था। चारों तरफ़ भीड़ थी जिसके कारण मुझे अपना वाहन ‘भैंसा’ नीचे उतारने के लिए जगह की कमी थी। मैं आकाश में तीन-चार चक्कर लगाता रहा, फिर कठिनाई से नीचे उतरा। इस बीच वह व्यक्ति बाहर निकला और अपनी शक्तिशाली मोटर में सवार होकर तेज़ी से चल पड़ा। मैंने किसी तरह अपने भैंसे पर सवार होकर उसका पीछा किया, किन्तु पकड़ नहीं सका। इस घटना के आलोक में ब्रह्मा द्वारा लिखित आयु-रेखा का अनादर हुआ जिसके लिए मैं लज्जित हूँ। इसका प्रायश्चित्त कैसे करूँ? प्रार्थना पत्र ब्रह्मा के पास है। लौटते वक़्त दो व्यक्तियों को पकड़ने में सफल हुआ - एक बूढ़ा बीमार किसान खेत में अपने फसल की रखवाली कर रहा था और दूसरी वृद्ध महिला अपनी कुटिया में अर्ध-चेतन अवस्था में पड़ी थी। सम्भव है ब्रह्मा का क्रोध थोड़ा शान्त हुआ होगा। इन्द्र महोदय, यदि आपकी अनुमति हो तो एक दूसरी रोचक घटना की चर्चा करना चाहूँगा।
इन्द्र के कुछ कहने से पहले ही ब्रह्मा बोल उठे:
हाँ यमराज, तुम्हें अनुमति है। मैं सृष्टि रचयिता हूँ, इसलिए मुझे जानने की उत्सुकता है कि सृष्टि का संचालन कैसे हो रहा है।
यमराज:
दो दिन पूर्व मैं आकाश मार्ग से अपने कार्य पर जा रहा था। सामने तेज़ गति से आते वायुयान को देखकर मेरा भैंसा भड़क उठा, उछलकर भागा, और मैं गिरते-गिरते बचा। देवलोक लौटने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था। जिस व्यक्ति का जीवनकाल समाप्त हो गया है वह आज भी जीवित है, ब्रह्मा प्रदत्त आयु का पुनः अपमान हुआ है। मैं अत्यन्त लज्जित हूँ, शायद अपराधी भी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ, ब्रह्मा का विधान ख़तरे में है। इस बीच जनसंख्या बढ़ना जारी है, मानो मनुष्य अमरत्व की ओर अग्रसर है।
इन्द्र:
हे यमराज, आपका कोई सुझाव जिससे ब्रह्मा का विधान समुचित तरीक़े से लागू किया जा सके? हम उसपर विचार करेंगे।
यमराज:
यदि आप अपना पुष्पक विमान मुझे उपयोग करने की अनुमति दे तो सफलता मिल सकती है। पुष्पक विमान अजेय है, किसी भी स्थिति का सामना करने में सक्षम है, .......
(यमराज का कथन समाप्त होने से पहले ही राजा इन्द्र उतेज्जित स्वर में बोल पड़े।)
इन्द्र:
यमराज, यह कैसा सुझाव है! पुष्पक विमान तो राजा का प्रतीक है, लोग इसकी पूजा करते हैं, इसका उपयोग तथाकथित मृत आत्मा को पकड़ने में कदापि नहीं किया जा सकता है। राजा का धर्म होता है जीवन की रक्षा करना, उसका प्रतीक मृत्यु का सौदागर नहीं बन सकता।
(इसी बीच एक द्वारपाल अचानक सभागार में प्रवेश करता है।)
द्वारपाल:
राजा इन्द्र, कृपया क्षमा करें; मुझे अचानक सभागार में प्रवेश करना पड़ा। आपकी अनुमति हो तो कारण बतलाऊँ।
कई स्वर एक साथ गूँज उठे:
अपनी बात निर्भीक होकर कहिए।
द्वारपाल:
अभी-अभी एक मानव आकृति ने इस प्रांगण में प्रवेश किया है, कुछ समय पहले ही यमराज ने उसे पृथ्वीलोक में पकड़ा था। वह ब्रह्मा को खोजते हुए यहाँ तक पहुँच गया है, उत्तेजित है और अति शीघ्र उनसे कुछ फरियाद करना चाहता है। वह न्याय की माँग कर रहा है, उसे रोकना धर्म के विरुद्ध है।
इन्द्र:
उसे सभा में आदर पूर्वक लाओ और आश्वस्त करो कि यहाँ न्याय मिलेगा।
मानव आकृति:
राजा इन्द्र को मेरा प्रणाम। मैं पृथ्वीलोक का निवासी हूँ और पेशा से वैज्ञानिक हूँ। मैं मानसिक रूप से एक महत्वपूर्ण चिन्तन में व्यस्त था, मेरा शरीर शिथिल था। इसी बीच यमराज ने मुझे मृत समझकर कैद कर लिया और मैं यहाँ आ पहुँचा। मेरे जीवन के कई वर्ष बाकी है, परन्तु यमराज मानने को तैयार नहीं हैं। यह तो अन्याय की पराकाष्टा है, बिना किसी अपराध के मृत्यु दंड देने के समान है।
ब्रह्मा:
किसी व्यक्ति के जन्म के समय ही उसकी आयु की सीमा मैं लिख देता हूँ। मेरे कालचक्र के अनुसार तुम्हारा जीवनकाल समाप्त हो चुका है, कुछ भी बचे रहने का दावा व्यर्थ है। यमराज पर दोषारोपण करना उचित नहीं है।
मानव आकृति:
हे सृष्टिकर्ता! पृथ्वीलोक और देवलोक की घड़ी में काफी अन्तर है, शायद आपका विज्ञान बोध अधूरा है। समय का माप सापेक्ष है, ब्रह्माण्ड में समय-अंतराल का माप ग्रहों की सापेक्ष गति पर निर्भर है। पृथ्वीलोक के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित सापेक्षवाद सिद्धांत में इसका उल्लेख है, जो सर्वमान्य है। पृथ्वीलोक और देवलोक भी ब्रह्माण्ड में चक्कर लगाते रहते हैं, यही स्थिति ब्रह्माण्ड के असंख्य तारों और ग्रहों की है। पृथ्वीलोक की तुलना में आपकी घड़ी तेज़ चलती है, इसलिए समय के माप में काफी अन्तर है। वस्तुतः पृथ्वीलोक की घड़ी के अनुसार मेरे जीवनकाल के कई वर्ष बचे हुए हैं, इसलिए मुझे जीवित रहने का अधिकार है।
ब्रह्मा:
मैं किसी भी व्यक्ति की आयु देवलोक की घड़ी के अनुसार लिखता हूँ। मैं पृथ्वीलोक के विज्ञान को नहीं मानता।
मानव आकृति:
महाशय, विज्ञान किसी लोक विशेष का नहीं होता – वह तो पूरे ब्रह्माण्ड पर लागू होता है। आपने मेरी आयु लिखते समय देवलोक की घड़ी का जिक्र नहीं किया था, इसलिए इसका लाभ मुझे मिलना चाहिए और यही नीतिगत भी है। पुनश्च, मेरे स्थूल शरीर का विकास-चक्र पृथ्वी की घड़ी से निर्धारित होता है तो इसका विनाश अर्थात मृत्यु भी उसी के अनुरूप होना चाहिए।
(ब्रह्मा थोड़ी देर सोचमग्न हो जाते हैं, तत्पश्चात उत्तर देते हैं।)
ब्रह्मा:
मैं तुम्हारे कथन पर निर्णय के लिए एक समिति का गठन करूँगा। अन्तिम निर्णय आने तक तुम्हें पृथ्वीलोक पर लौटने की अनुमति देता हूँ। यमराज इसका प्रबन्ध करेंगे।
यमराज:
हे ब्रह्मा महोदय, आपके आदेश ने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया है। मैं जीवन समाप्ति की गणना कैसे करूँगा, आपके द्वारा प्रदत्त आयु का आकलन कैसे करूँगा?
ब्रह्मा:
हे यमराज, मेरी बात ध्यान से सुनिए। वृद्ध, बीमार, असहाय, व्यक्तियों के लिए मृत्यु एक वरदान है, उन्हें कष्ट से मुक्ति दिलाने का उपयुक्त साधन है। उनके सम्बन्ध में आप यथावत स्वेच्छा से काम करें। लेकिन युवा, कार्यरत, समाज के प्रति समर्पित, व्यक्तियों को जीवित रहने का यथेष्ट अवसर मिलना चाहिए। उन्हें मेरे इस निर्णय का लाभ दीजिए। एक बात और – बुद्धिजीवियों पर मृत्यु का फन्दा डालने में सतर्क रहें, मैं उनके जटिल तर्क में फँसना नहीं चाहता।
यमराज:
जी महाशय, आपकी इच्छा का सम्मान होगा। इस मानव आकृति के तर्क से मैं भी प्रभावित हूँ।
इन्द्र:
हे मानव आकृति, पृथ्वीलोक पर लौटने से पहले मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। तुम पेशा से वैज्ञानिक हो, इसलिए तुम्हारा आकलन वस्तुपरक होगा। क्या मनुष्य सचमुच अमरत्व की ओर अग्रसर है? ऐसा होने पर वह देवत्व की प्राप्ति कर सकता है, इसलिए मैं भी चिन्तित हूँ।
मानव आकृति:
अमरत्व और देवत्व की कोई मानक परिभाषा नहीं है, इसलिए इस प्रश्न का सीधा उत्तर देना कठिन है। फिर भी मैं आपकी जिज्ञासा पूरी करने का प्रयास करूँगा।
इन्द्र:
वही सही, किन्तु सरल भाषा का प्रयोग करना ताकि सभी देवगण तथ्य समझ सके। बिना विषय प्रवेश की पूर्व जानकारी के वैज्ञानिकों की भाषा समझना दुष्कर होता है।
मानव आकृति:
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि ‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ में भेद है। वेद, पुराण, उपनिषद, जैसे ग्रंथों में ‘ज्ञान’ का निवास है जो मानवीय मूल्यों का संरक्षक है। त्याग, प्रेम, दया, पाप-पुण्य, इत्यादि इसी ज्ञान की उपज है। दूसरी तरफ़ मशीन, वाहन, संचार, औषधि, इत्यादि वस्तुओं का जनक ‘विज्ञान’ है जिसने जिन्दगी को सुख-सुविधा संपन्न बनाया है। मात्र दस हजार वर्ष पहले पहाड़ों और जंगलों में भोजन के लिए भटकने वाला मनुष्य आज सभ्यता के शिखर पर पहुँच गया है और ब्रह्माण्ड में छलांग लगाने के लिए तैयार है। यह सभी ‘विज्ञान’ का चमत्कार है। इक्कीसवी शताब्दी का मानव ‘विज्ञान’ का दास हो गया है, और ‘ज्ञान’ से दूर होता जा रहा है। आज के वैश्विक धर्म ‘वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं’ से निकलते हैं, पहाड़ी गुफाओं में साधना करने वाले ऋषि-मुनियों की वाणी से नहीं। नई औषधियों के आविष्कार से मनुष्य ने जानलेवा बीमारियों पर जीत हासिल कर ली है जिससे उसकी आयु बढ़ गयी है, और यह सिलसिला निरन्तर जारी है। इसे आप चाहें तो अमरत्व की ओर अग्रसर होने की संज्ञा दे सकते हैं।
विष्णु ने हस्तक्षेप करते हुए कहा:
लगता है मनुष्य एक ‘मशीनी जिन्दगी’ की राह पर है जिसमें भावनात्मक संवेदनाओं के लिए सीमित जगह होगी, किन्तु असीम सुख-साधनों से वह जल्द ही उब जाएगा। जिन्दगी की सार्थकता के लिए जीवन-दर्शन की संजीवनी चाहिए और एक उदेश्य भी – इक्कीसवी शताब्दी में उनका स्वरुप क्या होगा?
मानव आकृति:
उदेश्य तो स्पष्ट है – लम्बी आयु और लम्बा युवाकाल। वृद्धावस्था का रुग्न शरीर लेकर लम्बी आयु तक जीना तो एक अभिशाप होगा, इसलिए स्वस्थ युवावस्था की लम्बी अवधि वांछनीय है। इन दोनों की पूर्ति के लिए मनुष्य प्रयासरत है, वैज्ञानिक कायाकल्प का रहस्य खोजने में तत्पर हैं। आज मैं देवलोक में यही देख रहा हूँ – सभी स्वस्थ हैं, सुन्दर हैं, उर्जाशील हैं, अमर हैं। फिर मानवजाति क्यों नहीं? विज्ञान यह सपना पूरा करेगा। यही देवत्व प्राप्ति का माध्यम होगा।
विष्णु:
हे मानव आकृति, तुम्हारी बातों से अभिमान की गंध आ रही है। क्या तुम देवलोक को चुनौती दे रहे हो? देवताओं की अस्मिता को आहत करना चाहते हो?
मानव आकृति:
नहीं महाराज, मैं ऐसी धृष्टता कदापि नहीं करूँगा। मैंने तो सम्भावित वैज्ञानिक उपलब्धि की चर्चा की है। शायद अभी यह ‘काल्पनिक विज्ञान’ लगे, किन्तु इसे सच्चाई में बदलते देर नहीं लगेगी। इक्कीसवीं शताब्दी का मानव इसी जीवन में सभी सुखों का भोग करना चाहता है, न कि अगले जन्म में। पुरातन काल से ही वेदों और धर्म शास्त्रों ने मनुष्य को कष्ट झेलने का उपदेश दिया है ताकि मरणोपरांत अगले जीवन में उसे सुख की प्राप्ति हो। आज यह उपदेश खोखला हो गया है, यही विज्ञान की जीत है। मानव जाति को अपनी बल-बुद्धि पर अधिक विश्वास है, यही वैज्ञानिक सोच भी है। इस शताब्दी के अन्त तक मनुष्य मंगल ग्रह (मार्स) पर घर बसाने की योजना बना रहा है। देवलोक के लिए इतना संकेत पर्याप्त है।
विष्णु:
देवलोक और पृथ्वीलोक की संस्कृति अलग-अलग है, हमारे विचारों में भेद है। देवता और मनुष्य की प्रकृति अलग है, लेकिन हम परस्पर सम्मान करते हैं। सम्भव है निकट भविष्य में मनुष्य तथाकथित ‘अमरत्व’ और ‘देवत्व’ की शक्ति प्राप्त कर ले, उसके पश्चात? क्या वह देवलोक पर आधिपत्य का प्रयास करेगा? नए संघर्ष को जन्म देगा?
मानव आकृति:
हे पूज्य विष्णु, यह प्रश्न बिलकुल काल्पनिक है। इसका निर्णय तो आने वाली पीढ़ी करेगी। इतना कहना चाहूँगा कि पृथ्वी पर सभ्यताओं के बीच संघर्ष होते रहे हैं, आज भी हो रहे हैं छद्म वेश में, धर्म और आर्थिक विकास के परदे के पीछे। ऐसे संघर्षों की अपनी भूमिका रही है, यह कहना मुश्किल है कि भविष्य में इसकी सीमा क्या होगी। आदि काल में समुद्र मंथन से प्राप्त ‘अमृत का घड़ा’ लेने के लिए देवताओं और दानवों के बीच का संघर्ष भी सभ्यताओं के बीच संघर्ष था।
इन्द्र:
हे मानव आकृति, तुम्हारी बातों ने ‘देवलोक में हलचल’ पैदा कर दिया है, नई सोच के लिए वाध्य कर दिया है। अब तुम्हारे लौटने का समय हो गया है। यमराज प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मानव आकृति:
लौटने से पूर्व मैं भगवान कृष्ण से एक निवेदन करना चाहता हूँ। क्या इसकी अनुमति मिलेगी?
कृष्ण:
हे मानव आकृति, मैं तुम्हारी बातें ध्यानपूर्वक सुन रहा था। तुम निःसंकोच अपनी बात कह सकते हो।
मानव आकृति:
हे मुरलीधर कृष्ण, आपने कर्मयोग का मन्त्र दिया है ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ अर्थात मनुष्य को बिना फल की इच्छा के अपना कर्म करना चाहिए। पृथ्वीलोक के वैज्ञानिक भी इसी का अनुकरण करते हैं, उनके ह्रदय में हमेशा जनकल्याण भी भावना रहती है। क्या आविष्कारों के दुरुपयोग के भय से वे पीछे हट जाएँ? यदि ऐसा होता तो मानव आज भी सभ्यता की सीढ़ी पर काफी नीचे होता, शायद भोजन की खोज में भटकता रहता। आपका मार्गदर्शन सामयिक होगा।
कृष्ण:
मुझे पता है इक्कीसवी सदी का मानव उन्नति के शिखर पर है। वह स्वचालित बुद्धिमान मशीनों का जनक है, नई दृष्टि का सृजनकर्ता है। शंका है कहीं वैसे मशीन सम्पूर्ण मानव जाति का स्वामी न बन जाए – ऐसी स्थिति दर्दनाक और विनाशकारी होगी। मानव और मशीन के एकीकरण की सम्भावना प्रबल है, किन्तु इसके कारण दो लाख वर्षों का क्रमिक विकास अवरुद्ध हो सकता है। इसके परिणामों की भविष्यवाणी करना अव्यावहारिक होगा। कई मशहूर वैज्ञानिकों और सामाजिक चिन्तकों ने भी आशंका जताई है कि ‘कृत्रिम बुद्धि’ इक्कसवीं सदी का सबसे खतरनाक संकट बन सकती है।
मानव आकृति:
हे भगवन, आपका यह सन्देश मैं पृथ्वीवासियों तक पहुँचाऊँगा। मेरे मन में एक अतिरिक्त जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है, यदि राजा इन्द्र की आज्ञा हो तो कहूँ।
इन्द्र:
जल्द कहो, यमराज को विलम्ब हो रहा है।
मानव आकृति:
महाराज, आपकी देवसभा में महिलाएँ उपस्थित नहीं हैं। क्या यह निरा संयोग है या देवलोक की संस्कृति? देवलोक की अनेकों देवियाँ – जैसे पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती - पृथ्वीलोक पर पूजित हैं, किन्तु वे इस सभा में नहीं हैं। यह महिला सशक्तिकरण का युग है, पुरुष और नारी के बीच समानता का युग है; फिर देवलोक में ऐसा क्यों नहीं? भारतीय महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी हो रही हैं, शासन का बागडोर सम्भाल रही हैं, और यह सिलसिला जारी है। क्या देवलोक तक यह सन्देश नहीं पहुँचा है?
(राजा इन्द्र का चेहरा गम्भीर हो जाता है, वे उत्तर की तलाश में असहज दिखते हैं।)
कृष्ण:
हे मानव आकृति, तुम्हारी बातों में बदलते युग की झलक है। देवलोक की मर्यादा भी इस उभरती संस्कृति के आलिंगन में निहित है।
मानव आकृति:
जी महाराज। अलविदा!
(पटाक्षेप)
(टिप्पणी: ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ - यह सर्वमान्य तथ्य है। इसी के अनुरूप प्रस्तुत एकांकी में वर्तमान वैश्विक समाज की तस्वीर है, इक्कीसवीं शताब्दी में उभरते प्रश्नों और मूल्यों का वर्णन है। इसमें साहित्य और विज्ञान का संगम है, भविष्य की झलक है, कल्पना की उड़ान है। देवताओं की पात्रता हमारी पौराणिक संस्कृति की याद दिलाती है, इसको धर्म से जोड़ना अनावश्यक है। उन्हें मानवीय धरातल पर देखना समय की माँग है।)