चुनावी उत्सव
डॉ. कौशल श्रीवास्तव
[मेरी पुस्तक ‘कविता कलश’ (२०१४) से उद्धृत]
प्रजातन्त्र का पंचवर्षीय उत्सव समीप था
जनता में काफ़ी उत्साह था,
चुनावी संग्राम का बिगुल बज गया था
टिकटों का बिकना शुरू हो चुका था।
मैंने सोचा,
शायद यह सिनेमा का टिकट होगा,
एक राजनीतिक दल के कार्यालय जा पहुँचा।
द्वार पर बन्दूकधारी सुरक्षा कर्मी ने पूछा,
“तुम कौन हो? क्या चाहते हो?”
“मैं आम जनता हूँ
सभी राजनीतिक दलों का चहेता हूँ,
मेरे नाम की सर्वत्र चर्चा है
मेरे लिये प्रस्तावित विकास का शंखनाद
दिन-रात सुनाई देता है।
सोचा, एक टिकट मैं भी ख़रीद लूँ
इस नाटक का छोटा अभिनेता बन जाऊँ,
अपने देश की सेवा कर पाऊँ।”
कार्यालय के भीतर
‘क्लोज़ सर्किट टेलीविज़न’ पर मैं मौजूद था,
कौन जाने
कोई ‘स्टिंग ऑपरेशन’ का मामला हो!
एक मृदुभाषी व्यक्ति ने स्वतः आकर कहा,
“आप मेरे सम्मान के योग्य हैं
मेरे आराध्य हैं, धर्म के आधार हैं।
देवता तो पूज्य होते हैं
फल-फूल से ही प्रसन्न होते हैं,
धन-धान्य की लालसा से दूर रहते हैं।”
अधर्मी तो मैं हूँ,
भव्य महल में रहता हूँ
सुरा और सुन्दरी का सेवन करता हूँ,
सरकारी तिजोरी को अपना ख़ज़ाना समझता हूँ।
मुझे पता है,
अगले जन्म में नरक जाऊँगा
आपका दास बनूँगा,
पर अभी तो लाचार हूँ
पार्टी प्रधान का ग़ुलाम हूँ।”
उसने सहानुभूति के स्वर में कहा,
“यह नाटक अति ख़र्चीला है
इसका टिकट ख़रीदना
आपके समर्थ से सर्वथा बाहर है।”
धीमे स्वर में उसने पुनः कहा,
“विशेष टिकट देने की कुछ योग्यताएँ हैं,
यदि आप इसके क़ाबिल हैं
तो आपका स्वागत है।
ऐसे लोगों में प्रमुख हैं
करोड़पति दलित,
स्वर्णधारी पिछड़े वर्ग के ठेकेदार,
धर्म निरपेक्षता के नक़लची शोषणकर्ता,
भष्टाचार रत्न के नायक।
आप विचार करें, और फिर आयें।”
मैंने आश्चर्य से पूछ दिया,
“फिर आपने किसके लिए
विकास का संकल्प लिया है?”
उत्तर मिला,
“क्षमा प्रार्थी हूँ,
यदि आप झोंपड़ी वासी हैं
तो दीये की रोशनी ही आपके लिए
‘विकास का प्रकाश’ है,
प्रार्थना कीजिये
कहीं यह दीया भी न बुझ जाये।
हम तो देश के विकास की बात करते हैं
जो न्यूयॉर्क और लन्दन से दिखे,
ऐसा प्रकाश
जो विश्व रूपी आकाश से दिखे।”
“यदि इस बीच आप स्वर्गवासी हो गये,
तो वहाँ से
भारत एक चमकता सितारा लगेगा,
आकाश लोक से सम्पूर्ण विकास दिखेगा
और आपको भी स्वदेश पर गर्व होगा।
वैसे ही,
जैसे अप्रवासी भारतीयों को गर्व है
अपनी पौराणिक सभ्यता पर,
भविष्य में महाशक्ति बनने की नियति पर।”
मैंने कहा,
“धन्य है यह प्रजातन्त्र!
भूखे रहकर भी
हम गाते हैं विकास का गीत,
अन्धकार में खोजते हैं प्रकाश का रोमांच।
यही है भारतीय विरोधाभास
हम करें प्रशंसा या उपहास?
अन्त में,
इसी ने दिया है स्वाभिमान का मन्त्र,
जय हो, जय हो, यह प्रजातन्त्र!!”
डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तव
मेलबोर्न (ऑस्ट्रेलिया)