स्त्री
अर्चना मिश्राजब मैं छोटी थी तो चीज़ें समझ नहीं आती थीं,
सब कुछ सुंदर था
यौवन की दहलीज़ पर क़दम रखते ही
जाने क्या क्या बदल गया
नज़रें बदल गईं नज़ारा बदल गया
चीज़ों को देखने का पैमाना बदल गया
धीरे धीरे समझा
उमर की ये राह बड़ी कँटीली है
हर तरफ़ से सबकी निगाहें
जैसे मेरे पर ही आकर रुकीं थीं
कहीं अपनापन मिला
कहीं स्नेह, कहीं दुलार मिला
पर उन नज़रों को कैसे समझूँ
जिनमें सिर्फ़ लोलुपता का वास मिला
नज़रों से ही जो भेद देना चाहते थे मेरे जिस्म को
एक सर्प की भाँति निगलना चाहते थे
जो मेरे यौवन को
जिस उमर में मैं स्वच्छंद होना चाहती थी
कुछ क़र गुज़रने का जिगर चाहती थी
उस उम्र में ही पहरे बिठाए जाते हैं
कुछ दरिंदों के कारण चुपचाप मुँह छिपाए जाते हैं
सिर्फ़ बात इसी उम्र तक ही नहीं रुकती
जैसे जैसे उमर बढ़े
सुरसा का मुँह उतना ही खुले
आज उम्र का दूसरा ही पड़ाव है
फिर भी वही भय वही नज़रें वही नज़ारे हैं॥