कहानी एक रात की
अर्चना मिश्रा
आवरा कुत्तों का शोर
रातों को परेशान कर जाता है,
बंद कमरों में भी जाने कैसे
इनका शोर पहुँच जाता है,
शोरगुल इस क़द्र इनका भाता नहीं है,
डंडे के अलावा और कोई चारा नहीं है,
कब तक शराफ़त का लबादा ओढ़े बैठी रहूँ।
आख़िरकार हक़ीक़त से भी तो सामना करूँ,
सैर पर जाने को दिल कर आया,
मन थोड़ा सा मेरा घबराया,
सड़क किनारे अधनंगे बच्चों को देख
दिल मेरा भर आया।
घूम रही चार पहिया में,
क्या अदब, शान मेरी निराली,
दर दर बच्चे ठोकर खायें,
क्या इनकी नहीं कोई सुनवाई।
ख़ैराती ही सब काम चले,
पलभर ना कोई आराम मिले,
सब मिल खिंचवाते फोटो
स्टेटस अपना ख़ूब बढ़ायें
रात को इन्हीं बच्चों से,
साहब अपने बरतन ख़ूब घिसवाये,
बंद कमरों की बातें बड़ी,
आम आदमी के समझ से हटी,
एसी में बैठकर आदेश देना बड़ा सुहाए,
रातों रात सारी झुग्गी ग़ायब हों जायें,
मज़लूम निरीहों का मत पूछो हाल,
चक्की में पिसते पिसते बन गए फ़ौलादी माल।
बस एक सवाल का जवाब चाहती हूँ,
जैसा हो रहा है, सब ठीक हो रहा है
मूक बधिरों के शहर का क्या हाल हो रहा है॥