भूख

अर्चना मिश्रा (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

ख़ुशी पल भर का भरम 
या प्रतिपल मुस्कान 
कोई मापनी नहीं 
जो तय कर पाए मेरे भाव 
एक एक घूँट जैसे हलाहल मैंने पिया 
वैसा ही कुछ जीवन मैंने जिया 
निर्जन बेजान राहें 
वो तपती सड़कें 
वो घूमते आवारा कुत्ते 
कहीं कोई शब्द नहीं 
ना जाने कितने ही दिन 
और कितनी ही रातें 
ऐसे ही ज़ाया हो गईं 
सिर्फ़ बेचैनी और तलाश . . .
अंत ही नहीं महत्वाकांक्षाओं का 
एक दिशाहीन पथ से भटका 
किसी अज्ञात टापू पर छोड़ा हुआ 
जहाँ सिर्फ़ रुदन और चीत्कार हैं
जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़—
अपनी ही ध्वनि की प्रतिध्वनियाँ सुनाई दें। 
और एक दिन चीत्कार करते करते 
दम निकल जाए। 
दूर दूर तक सिर्फ़ पसरा सन्नाटा 
और चील कौवों का झुंड 
जो तुम्हारे शरीर की एक एक अँतड़ी को 
तब तक नोचता रहे 
जब तक तुम्हारा ख़ून सुर्ख़ लाल से 
कालिमा में परिवर्तित ना हो जाए। 
वो भूख से बिलबिलाते बच्चे कभी देखें हैं
जो कूड़ों के झुंड में से 
अनाज के दो चार दाने बीनने को मजबूर हैं
मैंने देखा है उनका ये संघर्ष 
महसूस किया है— 
उस भूख की छटपटाहट को बहुत पास से 
उनके संघर्ष का कहीं अंत ही नहीं है
रोज़ ही ऐसा जीवन जीने को अभिशप्त 
सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज्वालामुखी है
उनके भीतर 
जो रात दिन सुलग रहा है
उनके रूप में तैयार हो रहा है
आने वाले युगों का विध्वंस॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें