मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 

01-08-2023

मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 

अर्चना मिश्रा (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 
जहाँ सिर्फ़ आरोप और आरोप 
सिर्फ़ और सिर्फ़ इल्ज़ाम 
स्त्री मन क्या चाहता है कोई परवाह नहीं 
कोई इतना भी बुरा कैसे हो सकता है 
कोई पास फटके ही ना 
सिर्फ़ और सिर्फ़ आरोप 
दिमाग़ जैसे फट के कई टुकड़ों में विभाजित हो गया 
क्या क्या उम्मीद उस से 
सब बेकार 
जैसे वो सिर्फ़ एक सड़ी हुई बीमार लाश
सिर्फ़ बदबूदार 
इतनी सड़न की जहाँ जायें 
सब जगह बीमारी फैला आयें 
वो इतनी बेबस है आज 
सबके हाथ में ज़ुबान रूपी पत्थर 
कैसे कैसे कहाँ कहाँ फेकें सबने 
ख़ून के रिश्ते भी बेकार 
किसी को नहीं वो स्वीकार 
ऐसे में कहाँ वो जाएँ 
कहाँ अपना सिर छुपाये 
सबके लिए अब वो बेकार 
नहीं किसी को वो स्वीकार 
कोई तो, कहीं नहीं किसी का नामोनिशान 
जिसे वो हो एक प्रतिशत भी स्वीकार 
मरी हुई लाश सी पड़ी है, 
बदबू ही बदबू, कटे फटे अंग 
जमा हुआ ख़ून 
हर तरफ़ सन्नाटा 
किसी को कुछ समझ नहीं आता 
जलती हुई वेदी पर वो 
फफोले ही फफोले, 
दर्द अनंत 
सबके चेहरे प्रसन्न
ख़त्म हुआ एक सदी का द्वन्द्व
हाँ जी हाँ मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ 
मैं मुर्दों के शहर में रहती हूँ

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