दायरा 

अर्चना मिश्रा (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

आलीशान बँगलों में रहने वाली ख़ूबसूरत स्त्रियाँ, 
हसीं का लबादा ओढ़े कोने में सिसकती बेचारियाँ। 
इच्छाओं को तिलांजलि दे 
हाँ में हाँ मिलाने वाली मध्यमवर्गीय स्त्रियाँ। 
दिन रात वीभत्स समाज में गाली गलौज खाती 
पति को दुत्कारती महलों के 
सपने देखने वाली नासमझ स्त्रियाँ। 
आख़िर ये स्त्रियाँ बनीं कैसे। 
बचपन से ही कायरता का पाठ 
पढ़ते पढ़ते बन गई ये अबला स्त्रियाँ। 
मुँह पे ताला लगाते लगाते छिल गयें है होंठ सारे, 
आख़िर कब तक सहेंगी स्त्रियाँ। 
बीच रास्ते आँखों से ही 
चीरने वाले हैवान मिल जाएँगे, 
कहीं सड़क किनारे मिल जाएगी लाशें, 
कहीं घरों में जबरन नोचा खसोटा जाएगा। 
शाम होते ही लगा दिये जाएँगे बैरियर 
ताकि आबरूँ बची रहे घर की। 
कपड़ों से ही चरित्र का बखान किया 
इन मर्दों की सोच ने कितना बड़ा काम किया। 
अपनी सहूलियत के हिसाब से लगा दिये ताले। 
हर तरफ़ दायरा सीमित किया। 
स्त्री को संवेदनशील मान बहुत ही उम्दा काम किया। 
पर्दों में ढक क्या ख़ूब नाम किया। 
घुट घुट के हो गया है बुरा हाल 
स्वतंत्र नहीं है इस देश की सब स्त्रियाँ। 
कुछ सशक्त स्त्रियों की आड़ में 
छुप जाती है देश की मज़लूम स्त्रियाँ। 
जहाँ ना धूप गई, ना सरकार गई 
बंद जंगलों में गुमराह है कई स्त्रियाँ। 
सशक्तिकरण, पुनरुत्थान हो रहा 
फिर बेचारी क्यूँ दम तोड़ती है स्त्रियाँ। 

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