बचपन 

अर्चना मिश्रा (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मेरा बचपन कितना अच्छा था 
सब कुछ सहज सलोना था 
आज का बचपन बूढ़ा है
बंद कमरे में बैठा है
टीवी, फोन, विडीओ गेम 
इसी में अनुरक्त बड़ा है
पढ़ाई के बोझ तले दबा है
इतना कुछ अब पढ़ना है
जो अपनी समझ से परे बड़ा है
छोटे छोटे नौनिहालों का बचपन 
पिस सा गया है
खेल कूद और हुल्लड़ अब दब सा गया है
नहीं चाहिए इनको अब आज़ादी
सिर्फ़ करनी है बड़ों जैसी मनमानी 
इसमें किसका दोष बड़ा है
क़ुसूरवार को कौन सज़ा देगा 
पूरा सिस्टम ही इनके पीछे पड़ा है
किसी को करानी है आदर्श पढ़ाई 
तो कहीं व्यावसायिक कोर्स की है आँधी आई। 
मात-पिता सब कन्फ़्यूज़ बड़े हैं
बचपन से ही बच्चों के पीछे पड़े हैं
कुछ ना कुछ जो बन जाता 
दर दर के धक्के न खाता 
बेचारा बच्चा अबोध बड़ा है
फ़ुटबॉल की तरह से लुढ़क रहा है
सोच समझ से परे खड़ा है 
उसका ट्रिगर किसी और के हाथ में पड़ा है
भावनाएँ, सपने सब दब गए 
मासूमों के दिलों में भी कड़वाहट
ने घर कर लिया है
बोली में अब मिठास नहीं
बच्चों में अब वो बच्चों वाली बात नहीं
मत झोंको इनको आँधी में 
लाड़ दुलार मनुहार से पालो
डाँट फटकार की ना आदत डालो
जो ये अच्छे से पुष्पित हो जाएँगे 
ख़ूब नाम कमाएँगे॥

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