समकालीन इतिहास से बखूबी रूबरू करवाता है व्यंग्य संकलन 'लेखक की दाढ़ी में चमचा'

15-06-2020

समकालीन इतिहास से बखूबी रूबरू करवाता है व्यंग्य संकलन 'लेखक की दाढ़ी में चमचा'

दीपक गिरकर (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

 

पुस्तक : लेखक की दाढ़ी में चमचा
लेखक : सुरेश कांत 
प्रकाशक : अमन प्रकाशन, 104-ए/80-सी, रामबाग, कानपुर - 208012 (उ.प्र.) 
मूल्य  : 225 रुपए
पेज  : 167

हिंदी में व्यंग्य आज एक प्रतिष्ठित विधा है तो इसका श्रेय उसको इस रूप में गढ़ने में पुरानी पीढ़ी के हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और नयी पीढ़ी के नरेंद्र कोहली, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुर्वेदी, अशोक शुक्ल, शंकर पुणतांबेकर, सुशील सिद्धार्थ, गिरीश पंकज, सुभाष चन्दर, सुरेश कांत जैसे वरिष्ठ व्यंग्यकारों को जाता है। "लेखक की दाढ़ी में चमचा” वरिष्ठ और उत्कृष्ट व्यंग्यकार, साहित्यकार, आलोचक श्री सुरेश कांत का नवीनतम व्यंग्य संकलन है। इसके पूर्व लेखक के व्यंग्य उपन्यास ब से बैंक और जॉब बची सो... ने साहित्य जगत में धूम मचा दी थी। उपन्यास ब से बैंक को वरिष्ठ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवीन्द्रनाथ त्यागी ने बहुत पसंद किया था और पाठकों को इसे पढ़ने की सिफ़ारिश की थी। पुरानी पीढ़ी के वरिष्ठ व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल के व्यंग्य उपन्यास राग दरबारी के पश्चात श्री सुरेश कान्त का ब से बैंक व्यंग्य उपन्यास सबसे बेहतर माना गया और इसी उपन्यास ने कई व्यंग्यकारों के लिए व्यंग्य उपन्यास लिखने का मार्ग प्रशस्त किया। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। व्यंग्य लेखन में श्री सुरेश कांत की सक्रियता और प्रभाव व्यापक है। अपने लेखकीय सफ़र में सुरेश कांत ने रचनात्मकता के स्तर पर निरंतर नए आयाम जोड़े हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर ज़िले के निवासी श्री सुरेश कांत पेशे से पहले आरबीआई और फिर एसबीआई में टॉप मैनेजमेंट के पदों से सेवानिवृत्ति के बाद कम्पटीशन सक्सेस रिव्यू के संपादक और हिन्द पॉकेट बुक्स के प्रबंध संपादक रहने के बाद अब एक प्रसिद्ध बहुराष्ट्रीय प्रकाशन संस्थान में सम्पादन परामर्शदाता है। 

श्री सुरेश कांत के "अफसर गए बिदेश", "पड़ोसियों का दर्द", "बलिहारी गुरु", "गिद्ध", "अर्थसत्य", "देशी मैनेजमेंट", "चुनाव मैदान में बंदूकसिंह", "कुछ अलग", "बॉस, तुसी ग्रेट हो!", और "मुल्ला तीन प्याजा" जैसे व्यंग्य संकलनों ने भी हिंदी व्यंग्य में व्याप्त एकरसता तोड़ी थी और उसे एक नई ताज़गी प्रदान की थी। श्री सुरेश कांत एक सिद्धहस्त व्यंग्यकार होने के साथ ही एक सफल व्यंग्य आलोचक भी है। लेखक को युगचेतना और युगबोध का स्पष्ट बोध है। लेखक सरल शब्द, छोटे-छोटे वाक्य के साथ पुराने संदर्भों का बहुत उम्दा प्रयोग करके विसंगतियों, विडम्बनाओं और विद्रूपताओं पर तीव्र प्रहार करते हैं। इस संकलन की व्यंग्य रचनाओं में व्यंग्यकार सुरेश कांत ने लेखन की अपनी कुछ अलग शैली, नए शिल्प के साथ गहरी बात सामर्थ्य के साथ व्यक्त की हैं। वे अपनी क़लम से व्यंग्य के बँधे बँधाए फ़्रेम को तोड़ते हैं। आलोच्य कृति "लेखक की दाढ़ी में चमचा" में कुल 75 व्यंग्य रचनाएँ हैं। इस संकलन की व्यंग्य रचनाओं के विषय परंपरागत विषयों से हटकर अलग नए विषय हैं। इस संकलन की व्यंग्य रचनाएँ तिलमिला देती हैं और पाठकों को सोचने को विवश करती हैं।

श्री सुरेश कांत ने अपने आत्मकथ्य "तुलना अपरिहार्य है" में लिखा है कि "तुलना ज्ञान का एक महत्वपूर्ण साधन है। मैं तो भई, खूब तुलना करता हूँ और सबसे ज्यादा तुलना मैं अपनी ही करता हूँ, वह भी अपने से ही। इस तरह मैं देखता हूँ कि कल मैं जहाँ था, आज उससे कुछ आगे बढ़ा या नहीं? क्योंकि प्रतिस्पर्धा यहाँ किसी और से नहीं, ख़ुद ख़ुद से ही है। यहाँ किसी और को नहीं, ख़ुद को ही हराना है; किसी और से नहीं, ख़ुद से ही आगे निकलना है। और यह दौड़ कभी ख़त्म नहीं होती, अनवरत चलती रहती है।" 

शीर्षक रचना “लेखक की दाढ़ी में चमचा” के माध्यम से व्यंग्यकार ने लेखक और उसके चमचों की कारगुज़ारियों पर प्रश्न-चिन्ह लगाया गया है। इस व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार लिखते हैं "इसलिए हर बड़ा लेखक किसी सभा गोष्ठी में पहुँचने से पहले चमचे के यहाँ जाकर या उसे अपने यहाँ बुलाकर उसे दाढ़ी में खोंसने के बाद ही वहाँ पहुँचता है। लेखक की दाढ़ी में रखा वह चमचा अपनी हरकतों से दूसरे लेखकों की बोलती इस तरह बंद कर देता है कि उस दाढ़ीदार लेखक की तूती बोलने लगती है, जिसके चलते उसकी हर प्रस्तुति, प्रस्तुति न रहकर प्रस्तूती बन जाती है।” सुरेश कांत के पास कटाक्ष करने की बेहतरीन क्षमता है। "वे हैं प्रेम-रोगी" में गहरे व्यंग्य की बानगी देखिए - "किसानों को बहुत-से शौक़ होते हैं, जैसे कि खेती करना, कर्ज़ लेना और देना ही नहीं, बल्कि उसमें रात-दिन डूबे भी रहना, आदि। ऐसा ही उनका एक शौक़ आत्महत्या करना भी है और जब वे खेती-बाड़ी से फ़ुरसत पा लेते हैं, लहलहाती फ़सलों से उनके घर भर जाते हैं, कोई चिंता बाक़ी नहीं रहती, तो फिर ख़ाली समय में उन्हें आत्महत्या का शौक़ चर्राने लगता है और जैसा कि गुटके के एक विज्ञापन में बताया गया है, शौक़ बड़ी चीज़ है।"

"पोडिकल साइंस में लल्लन टॉप" व्यंग्य में शिक्षा के क्षेत्र में देश में हुई ज़बरदस्त तरक़्क़ी की पोल खोलती है। इस व्यंग्य रचना में लेखक लिखते हैं "आज पोडिकल साइंस जैसे कितने ही नए और अनसुने-अनजाने विषय जुड़ गए हैं पाठ्यक्रम में, जिनके बारे में उनमें टॉप करने वाले बच्चे तक ठीक से नहीं जानते। कुछ अरसा पहले बिहार में इस विषय में टॉप करने वाली बच्ची ख़ुद यह नहीं बता रही थी कि उसने किस विषय में टॉप किया है।" ‌‌‍"फ़ाइल का धर्म" व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार लिखते हैं "जी हाँ, फ़ाइल का भी अपना एक धर्म होता है, जो अंगद के पाँव का-सा होता है। इस रचना में व्यंग्य की बानगी देखिए: "सरकारी फ़ाइलों के इस धर्म का सम्यक् परिपालन सुनिश्चित कराने में सरकारी कर्मचारियों का उल्लेखनीय योगदान रहता है। कभी-कभी तो लगता है कि उन्हें तनख्वाह भी इसी बात की दी जाती है कि वे फ़ाइलों को इधर से उधर ना होने दें। कोई नासमझ कर्मचारी उन्हें चलता करने की कोशिश करता भी है, तो सरकार उसी को चलता कर देती है। दूसरी तरफ़ जो कर्मचारी फ़ाइलों पर इस भाँति पसर जाते हैं कि न ख़ुद हिलते हैं न फ़ाइल को हिलने देते हैं, उनकी पदोन्नति की संभावनाएँ बनती चली जाती हैं। ऊँचे सरकारी पदों पर अक्सर साक्षात् गधे जो पसरे दिखाई देते हैं, सो इसी वज़ह से। "फिर खोदा पहाड़, निकली चुहिया" में लेखक की चिंतन की प्रौढ़ता का दर्शन होता है। इस व्यंग्य रचना में सुरेश कांत लिखते हैं "वहाँ बेशक चूहे भी रहते हैं, लेकिन पहाड़ खोदे जाने पर निकलने का दायित्व उन्होंने चूहियों को ही सौंपा हुआ है। एक तो पहाड़ कुतर- कुतरकर चूहे इतने मोटे हो जाते हैं कि उनका निकलना संभव नहीं होता और दूसरे, अपने रुसूख़ की बदौलत उन्हें इसकी ज़रूरत भी नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर वे दिखावे के लिए चूहिया को आगे कर देते हैं, जिसे देख सब लज्जित होकर लौट जाते हैं कि अरे, इतना बड़ा पहाड़ खोदने पर भी यह छोटी-सी चूहिया ही निकली! इस तरह चुहिया के चक्कर में मोटे- मोटे चूहों की तरफ़ किसी का ध्यान ही नहीं जाता और वे साफ़ बच जाते हैं।" "मेरी जिंदगी का सवाल है!" में प्रूफरीडर की कारस्तानियों का लेखा-जोखा है।

"मैंने तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन", "प्यार प्यार ना रहा", "मेरी जिंदगी का सवाल है!", "मुझे सब पता है", "फ्रंट के लिए बैकफुट", "बच्चों से ज्यादा बूढ़ा", "बजट की सनसनी" "मीडिया और राजनीति के बजरंगी भाईजान", "बमन को इंतजारी ही क्या?", "बस्सी जैसा कोई नहीं", "बाद मरने के मेरे घर से लाठी निकली", "बाप पढ़े ना हम", ""बांहों में और, चाहों में और", "बिना भत्ते का ओवरटाइम", "मन रे गा", मीरा बोलेगी थैंक्यू", "ये जीना भी कोई जीना है?", "योग : नूडल्सु कौशलम्", "रेप और मोबाइल" जैसे व्यंग्य अपनी विविधता का अहसास कराते हैं। “रिश्वतखोरों के उसूल”, "प्रशिक्षण और हनीमून", "प्रशिक्षण की कीमा-एप्रोच", "बंदरों पर फिल्म", "बिवेयर ऑफ काऊ", "बैंक-अधिकारी तो नहीं थे सूरदास?", "ये भगवान का घर है", " "भगवान की मरजी", "मन लागा यार फकीरी में", "शंखचक्रगदाहस्ते महामैगी नमोsस्तुते", "महिलाओं की आईपीएल", "माइनस प्लस माइनस", "मुंडन-कौमुदी", "भाँति-भाँति के मुंडन" जैसे रोचक व्यंग्य पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं। इन व्यंग्य रचनाओं से लेखक की गहरी दार्शनिकता दृष्टिगोचर होती है। कतिपय बानगी प्रस्तुत है। “बहुत पहले फ़िल्म "मजबूर" में अमिताभ बच्चन ने प्राण से पूछा था कि माइकल, मैंने सुना है, चोरों के भी उसूल होते हैं? और जवाब में प्राण ने कहा था कि तुमने ठीक ही सुना है बरखुरदार चोरों के ही उसूल होते हैं। यही बात रिश्वतखोरों के बारे में भी कही जा सकती है। पहले भले ही रिश्वत और सिद्धांत परस्पर विरोधी रहे हों, पर आज़ादी के सत्तर वर्षों में उनके बीच विरोध घटा है और सौहार्द बढ़ा है। यहाँ तक कि रिश्वत ख़ुद अपने आपमें एक स्वर्णिम सिद्धांत बन गया है। यही कारण है कि एक ओर सिद्धांतवादियों ने रिश्वत को अछूत मानना छोड़ दिया है, तो दूसरी ओर रिश्वतखोरों में सिद्धांतवादियों के दर्शन होने लगे हैं" (रिश्वतखोरों के उसूल), "जिन बीवी-बच्चों को अपने प्रशिक्षणार्थी पति या पिता के साथ जाने का मौक़ा नहीं मिल पाता वह अपने पति या पिता को एक लंबी चौड़ी क्रय सूची थमा देते हैं, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज से लेकर साड़ियाँ, पापड़, शंख आदि तमाम चीज़ें शामिल रहती हैं। प्रशिक्षण की "फ्रिज बेनिफिट एप्रोच" के अंतर्गत प्रशिक्षण गुरुद्वारा में मिलने वाले लंगर जैसा होता है, जिसे सब पाना चाहते हैं और जो बारी बारी से सबको मिल भी जाता है। (प्रशिक्षण और हनीमून), “कीमा-एप्रोच उत्पादनोन्मुख संगठनों की ख़ास विशेषता है। वे समझते हैं कि जैसे एक छोर पर कच्चा माल रख देने से दूसरे छोर पर परिष्कृत उत्पाद यानी फ़िनिश्ड प्रोडक्ट प्राप्त हो जाता है या जैसे ग्राइंडर के ऊपरी हिस्से में मांस रख देने से नीचे कीमा प्राप्त हो जाता है, वैसे ही अपने किसी प्रबंधक को प्रबंधन-विकास-कार्यक्रम में भेजेंगे तो देखते ही देखते वह एक विकसित प्रबंधक होकर लौटेगा।"(प्रशिक्षण की कीमा-एप्रोच), "तीसरे बंदर ने मायूसी के साथ कहा-वैसे भी आजकल लोग जिसे गाँधीवाद कहते हैं, वह असल में गाँधीवाद की आड़ में बंदरवाद होता है, जिसे ठेठ भाषा में बंदरबांट कहते हैं।”(बंदरों पर फिल्म), "मैं अपने दोस्त से मिलने उसकी कोठी पर गया था। दोस्त अमीर आदमी है। अमीर हो जाने के बाद भी, दोस्त भी है और आदमी भी, सुनकर हैरानी हो सकती है। क्योंकि अमीर हो जाने के बाद दोस्त होने की तो छोड़िए, आदमी रह पाना भी मुश्किल होता है। अमीर तो आदमी बनता ही आदमीयत छोड़ने के बाद है।" (बिवेयर ऑफ काऊ), "मैं आज यह एक अभूतपूर्व ख़ुलासा करता हूँ कि सूरदास अपनी युवावस्था में किसी सरकारी बैंक में काम करते थे और अंधा उन्हें इसलिए नहीं कहा जाता था कि उनकी आँखें नहीं थी, बल्कि इसलिए कहा जाता था क्योंकि उन्होंने अन्य आसान नौकरियाँ उपलब्ध होने के बावजूद बैंक की कठिन नौकरी चुनी थी।" (बैंक अधिकारी तो नहीं थे सूरदास?), देश में सड़कों पर न जाने कितने मंदिर बने हैं, जो ट्रैफ़िक-जाम के माध्यम से लोगों को पग-पग पर याद दिलाते हैं कि यह संसार नश्वर है। अगर तू इस भयंकर जाम का शिकार हो गया तो स्वर्ग प्राप्त करेगा, और बच गया तो... लेकिन अब तक बचेगा? कल तुझे फिर इधर से ही आना है। (ये भगवान का घर है), "कभी-कभी तो मुझे लगता है कि भगवान ने हमें बनाया ही हमारे ऊपर अपनी मरजी थोपने के लिए है। वरना आप ही बताइए, उसने ऐसा क्यों किया? वह तो बताता नहीं। लोग पूछ-पूछकर थक गए कि दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई? जवाब में बस एक ही बात उसने कही बताते हैं कि एकोहं बहुष्याम यानी मैं अकेला हूँ, बहुकेला होना चाहता हूँ। वह भी दुकेला हुए बिना ही।" (भगवान की मरजी) "लेकिन जैसा कि कबीर ने कहा है, सरकार द्वारा रोज़ नियम बदल-बदलकर यह समझाने के बावजूद कि विमुद्रीकरण से तुम्हारी मुद्रा रूपी माया मरी नहीं है, आज नहीं तो कल, और कल नहीं तो परसों, और परसों नहीं तो पचास दिन बाद और पचास दिन बाद नहीं तो छह-आठ महीने में, मतलब कभी ना कभी, मिल जाएगी, आदमी का मन नहीं भरा या माना और वह अगले दिन फिर से ब्राह्म मुहूर्त में जागने की शास्त्रोक्त महिमा का स्मरण कर, सुबह होने से पहले ही उठकर एटीएम की लाइन में लगने जाता रहा। वहाँ खड़े-खड़े उनमें से कइयों का शरीर मर-मर गया, लेकिन आशा-तृष्णा नहीं मरी और परलोक जाकर भी वे एटीएम की लाइन ही ढूँढ़ते रहे हों, तो कोई ताज्जुब नहीं। (मन लागा यार फकीरी में), "राम-राम करते हुए किसी तरह से लक्ष्मी ने मृत्यु लोक की सीमा में प्रवेश किया, तो रात हो चुकी थी। हर ओर मेक इन इंडिया का मज़ाक उड़ाते मेड इन चाइना दीपों और बल्बों की लड़ियों की रोशनी झिलमिला रही थी। एक पार्क के किनारे अपने उल्लू को पार्क कर लक्ष्मी ने ब्रीफ़केस से उन भक्तों की सूची निकाली, जिनके छप्पर इस बार उन्हें फाड़ने थे।" (शंखचक्रगदाहस्ते महामैगी नमोsस्तुते), "इस ऐय्याशी भरी आईपीएल के बरक्स एक मशक्कतभरी आईपीएल देश में कई जगहों पर महिलाएँ बहुत पहले से खेल रही हैं, जिसका फुल फॉर्म इंडियन पानी लीग है और जिसमें महिलाएँ ट्वेंटी-ट्वेंटी मील दूर से पानी भरकर लाती हैं।" (महिलाओं की आईपीएल), "नेताओं का ज्ञान और श्रेष्ठता-बोध शिक्षकों के सामने सबसे ज्यादा उछाल मारता है, जिसे देख लोग यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि कहीं इनके शिक्षकों ने इन्हें जमकर मुर्गा तो नहीं बनाया था? पिछले दिनों गवैये से नेता बने एक सांसद ने एक शिक्षिका को उसके द्वारा गाने की फरमाइश करने पर यह कहकर सरे-आम लताड़ा था कि तुम्हें पता नहीं, सांसद से कैसे बात की जाती है? लेकिन फिर उसी सांसद को सरे-आम एक अभिनेत्री के सामने घुटने टेक कर "तू लगावेलू जब लिपस्टिक" गाने में कोई अमर्यादा नहीं लगी।" (माइनस प्लस माइनस), "मुंडन करने की नई-नई विधियों और साधनों का विकास हो गया है। फलत: चारों ओर मुंडन का बाजार गर्म है। जहाँ देखो, वहीं मुँड़ी-मुँड़ाई मुँडियाँ मँडरा रही हैं और मूँडने वालों के उस्तरों की कारगुजारियाँ देख चकरा रही हैं। जो भारत-भूमि कभी सुजलां सुफलां शस्य श्यामलाम् होने के कारण प्रसिद्ध थी, वह अब मुंडकों की लहलहाती फसल के कारण प्रसिद्धि प्राप्त कर रही है। (मुंडन-कौमुदी), "यंत्रीकरण और विज्ञानीकरण के इस युग में मूँडने के भी नए-नए औजार आविष्कृत हो गए हैं। कोई हाथों से मूँड़ता है, कोई बातों से मूँड़ता है, कोई लातों से मूँड़ता है। इसी तरह कोई नोटों से मूँड़ता है, कोई वोटों से मूँड़ता है, कोई सोटों से मूँड़ता है। चारों तरफ़ चमकते स्टेनलेस स्टील के चमचे भी चमकते हुए उस्तरें से कम महत्व नहीं रखते। वे अपने अफसर या नेता के विवेक का मुंडन कर डालते हैं। (भाँति-भाँति के मुंडन)

व्यंग्यकार ने इस संकलन में व्यवस्था में मौजूद हर वृत्ति पर कटाक्ष किए हैं। व्यंग्यकार ने इस व्यंग्य संग्रह की रचनाओं में बड़ी सूक्ष्मता और सांकेतिकता के साथ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में व्याप्त ढकोसलों, अन्याय, पाखंड और दोहरे चरित्रों की कलाई खोलते हुए उन्हें बेनक़ाब किया है साथ ही इन सभी क्षेत्रों में हो रहे मूल्य ह्रास पर लेखक ने अपनी क़लम चलाई है। इस संग्रह की रचनाओं के विषय परंपरागत विषयों से हटकर अलग नए विषय है। संग्रह की रचनाएँ तिलमिला देती हैं और पाठकों को सोचने पर विवश करती हैं। इस संकलन में व्यंजनात्मक तीखी अभिव्यक्ति और भरपूर कटाक्ष है। सुरेश कांत जी दूसरे व्यंग्यकारों से अलग है। वे एक अद्वितीय व्यंग्यकार हैं। वे बेबाक़ी से सच को बयाँ करते हैं। उन्होंने व्यंग्य को एक नई धार दी हैं। उनका व्यंग्य लेखन दिनों दिन और अधिक पैना होता जा रहा है। उन्होंने व्यंग्य विधा को नया तेवर और ताज़गी प्रदान की हैं। पुस्तक की भाषा चुटीली है। व्यंग्य रचना के हर वाक्य में गहरे पंच हैं। 75 व्यंग्य रचनाओं की यह पुस्तक अपने परिवेश से पाठकों को अंत तक बाँधे रखने में सक्षम है। यही उनकी सफलता है जो इस व्यंग्य संकलन को पठनीय और संग्रहणीय बनाती है। सुरेश कांत के व्यंग्य पढ़कर समकालीन इतिहास से बख़ूबी रूबरू हुआ जा सकता है और उनका यह व्यंग्य संकलन "लेखक की दाढ़ी में चमचा" इस बात का ज्वलंत प्रमाण है।

दीपक गिरकर
समीक्षक
28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड,
इंदौर- 452016
मोबाइल : 9425067036
मेल आईडी : deepakgirkar2016@gmail.com
 

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