मानवीय संघर्ष की जिजीविषा से रूबरू कराता रोचक, दिलचस्प और प्रेरणादायी उपन्यास है 'कुबेर'   

15-01-2020

मानवीय संघर्ष की जिजीविषा से रूबरू कराता रोचक, दिलचस्प और प्रेरणादायी उपन्यास है 'कुबेर'   

दीपक गिरकर (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति : कुबेर   
लेखिका : डॉ. हंसा दीप  
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, बस स्टैंड, सीहोर - 466001 (म.प्र.)
आईएसबीएन नंबर : 978-93-87310-50-6
मूल्य   : 300 रूपए
प्रकाशन वर्ष : 2019

उपन्यासकार डॉ. हंसा दीप का हिंदी कथा साहित्य में चर्चित नाम है। कहानी और कथा लेखन में हंसा जी की सक्रियता और प्रभाव व्यापक हैं। डॉ. हंसा दीप की कई कहानियाँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। “कुबेर”डॉ. हंसा दीप का दूसरा उपन्यास है, इन दिनों काफ़ी चर्चा में है। पिछले साल इनका “बंद मुट्ठी” उपन्यास भी काफ़ी चर्चित रहा था। लेखिका का एक कहानी संग्रह ”चश्मे अपने-अपने” प्रकाशित हो चुका है। लेखिका वर्तमान में यूनिवर्सिटी ऑफ़ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत है। लेखिका ने उपन्यास ”कुबेर” में बालक धन्नू के जीवन-संघर्ष, उसकी सफलताओं, विफलताओं और उसके जीवन के उतार-चढ़ाव को जिस कौशल से पिरोया है, वह अद्भुत है। कुबेर उपन्यास का कथानक निरंतर गतिशील बना रहता है। इस उपन्यास के पात्र जीवंत हैं। यदि आप एक बार इस उपन्यास को पढ़ना शुरू कर देते हो तो आप इसे बीच में छोड़कर उठ नहीं सकते हैं, आपको इस उपन्यास के पात्र अपनी दुनिया में खींच लेते हैं। इस उपन्यास में गहराई, रोचकता और पठनीयता सभी कुछ हैं। पुस्तक की भाषा सरल व सहज है। हंसा जी की लेखनी में परिपक्वता है और इनकी रचनाधर्मिता हमेशा सोद्देश्य रही है। इस उपन्यास का उद्देश्य है ग़रीब असहायों की सेवा करने जैसी भावनाओं को जगाना। इस कथा के पात्र जब एक दूसरे से बिछुड़ते हैं तो उस बिछुड़ने के दर्द को हंसा जी ने बहुत ही ख़ूबसूरत शब्दों में व्यक्त किया है। नायक धन्नू के जीवन पर केंद्रित इस उपन्यास का कथानक सकारात्मक और प्रेरणादायी है। कथाकार ने इस उपन्यास की कथा में मानवीय रिश्तों के भावनात्मक पहलूओं के साथ व्यावसायिक पक्षों को भी प्रभावी तरीक़े से अभिव्यक्त किया है। लेखिका इस उपन्यास में लिखती है ”कुबेर का खजाना नहीं है मेरे पास जो हर वक़्त पैसे माँगते रहते हो। माँ की इस डाँट से बालक धन्नू समझ नहीं पाया कि दस-बीस रूपयों में खजाना कैसे आ जाता है बीच में, यह खजाना कहाँ है और इसमें पैसे ही पैसे हैं, कभी ख़त्म न होने वाले। अगर यह सच है तो - माँ के लिए एक दिन यह खजाना हासिल करके रहूँगा मैं।” एक छोटे से गाँव के ग़रीब परिवार का धन्नू किस प्रकार अपनी मेहनत, लगन, कर्मठता, तन्मयता, क़ाबिलियत और ढृढ़ इच्छा-शक्ति से अपने गाँव से न्यूयॉर्क पहुँचता है और कुबेर बनता है और साथ ही उसके द्वारा गोद लिए ग्यारह बच्चे भी कुबेर बनते हैं, यह तो आप नायाब और बेमिसाल उपन्यास कुबेर पढ़कर ही समझ पाएँगे। उपन्यास पढ़ते हुए कहीं-कहीं आँखें भीग जाती हैं। जीवन-ज्योत संस्था में रहने वाले और वहाँ के मुख्य कार्यकर्ताओं के रहन-सहन, खान-पान, वार्तालाप-संभाषण आदि को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे लेखिका जीवन-ज्योत में उनके साथ रही हो। 

कथाकार हंसा जी ने इस उपन्यास को नोबेल पुरस्कार विजेता माननीय कैलाश सत्यार्थी जी को समर्पित किया है। देश में ग़रीबी, बालश्रम और सामाजिक, प्राकृतिक त्रासदी से दिन-रात भिड़ने वाले असली नायकों को जानने की चाह रखने वालों के लिए कुबेर एक बेहद पठनीय उपन्यास है। इस उपन्यास की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ साहित्यकार श्री पंकज सुबीर ने लिखी है। श्री पंकज सुबीर ने भूमिका में लिखा है "असल में हंसा जी के उपन्यासों की कथावस्तु जीवन से ली गई होती है। आम आदमी के जीवन से। उसके संघर्ष, उसकी सफलताएँ, विफलताएँ, ख़ुशी, गम ये सब हंसा जी के कथा विस्तार में शामिल रहता है। उनकी शैली तथा शिल्प इतना रोचक तथा संप्रेषणीय होता है कि उपन्यास पढ़ते समय आगे के घटनाक्रम की जिज्ञासा बनी रहती है।" लेखिका जीवन की समस्याओं को बख़ूबी उठाती है और संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए इस उपन्यास के पात्रों के अंदर की छटपटाहट,  उनके  अन्तर्मन की अकुलाहट को पाठक स्वयं अपने अंदर महसूस करने लगता है। वैश्विक परिवेश में झिलमिलाते मानवीय मूल्य पाठकों को ताज़गी से भर देते हैं। पूरा उपन्यास एक सधी हुई भाषा में लिखा गया है। उपन्यास के कथानक में कहीं बिखराव नहीं है। बुनावट में कहीं भी ढीलापन नहीं है। उपन्यास की बुनावट और कथा का प्रवाह पाठक को बाँधे रखता है, प्रस्तुत उपन्यास का कथानक गतिशील है जिससे पाठक में जिज्ञासा बनी रहती है। इसका कथानक इसे दूसरे उपन्यासों से अलग श्रेणी में खड़ा करता है। कुबेर बहुपात्रीय उपन्यास है। पात्रों की अधिक संख्या से ऊब नहीं पैदा होती है, अपितु उनके संवाद से स्वाभाविकता का निर्माण होता है। प्रत्येक पात्र अपने-अपने चरित्र का निर्माण स्वयं करता है। अन्य पात्रों के साथ प्रत्येक घटना धन्नू उर्फ़ डीपी के आसपास घूमती है। उपन्यास रोचक है और अपने परिवेश से पाठकों को अंत तक बाँधे रखने में सक्षम है। अंत बहुत प्रभावशाली है।
 
कुबेर उपन्यास का शीर्षक अत्यंत सार्थक है। उपन्यास का कथानक इस प्रकार है। एक नेताजी धन्नू का उत्साह देखकर उसे गाँव के सरकारी स्कूल से निकालकर गाँव से दूर एक अँग्रेज़ी स्कूल में दाख़िला करवा देते हैं। दो वर्ष तक सब कुछ ठीक चलता है क्योंकि नेताजी ही उसके स्कूल की फ़ीस, पुस्तकें और कापियों का इंतज़ाम करते है लेकिन जब दो साल बाद नेताजी सत्ता में नहीं रहते है तब धन्नू पर आफ़त आ पड़ती है। उसके माता-पिता बहुत ग़रीब है जो उसके स्कूल की फ़ीस, पुस्तकें और कापियों की व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। स्कूल में धन्नू को रोज़ मार पड़ती है और अपमान सहन करना पड़ता है। एक दिन धन्नू बिना किसी की बताए ग़ुस्से में अपना घर छोड़ देता है और गाँव से बहुत दूर शहर के रास्ते पर वह गुप्ता जी के ढाबे पर काम करता है। वह कड़ी मेहनत और लगन से काम करता है। वह कुछ दिनों के बाद अपने माता-पिता से मिलने गाँव जाता है लेकिन उसके गाँव पहुँचने के पूर्व ही उसके माता-पिता का देहांत हो चुका होता है। वह वापस ढाबे पर आ जाता है। इस ढाबे पर एक स्वयं सेवी संस्था "जीवन ज्योत" संस्था के दादा आते रहते हैं और धन्नू के काम की लगन से वे उससे काफ़ी प्रभावित होते हैं। वे धन्नू को अपने साथ जीवन ज्योत में लेकर चले जाते हैं। दादा उसके पढ़ने की इच्छा को देखकर उसे जीवन ज्योत में ही पढ़ाते हैं। धन्नू सब कुछ जल्दी सीख जाता है और वह जीवन ज्योत संस्था में सेवा कार्य में जुट जाता है। "जीवन ज्योत" संस्था के दादा ने धन्नू में एक अजब आत्मविश्वास पैदा किया। यहाँ उसे धन्नू प्रसाद से डीपी नाम से पुकारा जाने लगता है। जीवन ज्योत में कई बेसहारा लोग आते और वहाँ के ही हो जाते। इस संस्था की सहायता से बच्चे पढ़ लिखकर बाहर जाते और अपनी आमदनी में से संस्था को पैसा भेजते रहते। कुछ बच्चे विदेशों में भी चले गए थे और इस संस्था को आर्थिक रूप से सहायता करते रहते थे। दादा कई बार विदेशों में जाते रहते हैं तब जीवन ज्योत संस्था को डीपी ही सँभालता है। वह अपनी जवाबदारी को बख़ूबी निभाता है। वह इस संस्था में सबका चहेता बन जाता है। एक बार दादा उसे अपने साथ न्यूयार्क ले जाते हैं। न्यूयार्क में दादा को हार्ट अटैक आता है और दादा का देहांत हो जाता है। न्यूयार्क में डीपी की मुलाक़ात भाईजी जॉन से होती है। भाईजी की सहायता से डीपी दादा का अंतिम संस्कार न्यूयार्क में ही करता है। दादा के देहांत के पश्चात जीवन ज्योत की सारी जवाबदारी डीपी के कंधों पर आ जाती है। भाई जी की सलाह पर डीपी न्यूयार्क में ही अचल संपत्ति (रियल एस्टेट) का व्यवसाय प्रारम्भ करता है। इस व्यवसाय में डीपी को सफलता मिलती है। डीपी इस व्यवसाय की आमदनी का पैसा जीवन ज्योत संस्था को भेजता रहता है, लेकिन जीवन ज्योत संस्था में ग़रीब, बेसहारा नये सदस्यों की संख्या में प्रतिदिन बढ़ोतरी होती है। डीपी भाई जी की सलाह पर शेयर बाज़ार की बारीक़ियों को समझकर इस नये व्यवसाय में निवेश करता है और साथ ही विभिन्न स्थानों पर अपनी व्याख्यान (स्पीच) देकर आय के स्त्रोत बढ़ाता है। डीपी के मन में दादा की दी हुई एक पूँजी थी "सब अपने हैं, सबका दु:ख अपना है, सबकी ख़ुशी अपनी है।" जहाँ लोग दूसरों के ग्राहकों को खींचने के लिए जी-जान एक कर देते, वहीं डीपी दूसरों की मदद के लिए अपने ग्राहकों को भी उनकी सिफ़ारिश करता। डीपी न्यूयार्क जैसे शहर में भी काफ़ी लोगों का चहेता बन चुका था। समय हमेशा एक सा नहीं रहता। सफलता का सिलसिला कई बार क़ायम नहीं रह पाता। डीपी के साथ भी यही होता है। इधर भारत में बाढ़ आती है जिससे काफ़ी लोग बेघर हो जाते हैं। वे जीवन ज्योत संस्था में आकर आसरा लेते हैं और 11 मासूम बच्चे जिनके माता पिता बाढ़ के कारण जीवित नहीं रह पाते हैं वे भी जीवन ज्योत संस्था में लाए जाते हैं। अब डीपी को जीवन ज्योत संस्था में अधिक पैसे भेजने का दबाव था। वह कुछ ज़मीन के टुकड़े, मकान बेचने का विचार कर ही रहा था। लेकिन अभी डीपी का समय ठीक नहीं चल रहा था। अचल संपत्ति के भाव एकदम से गिर गए। डीपी को कुछ अचल संपत्ति कम भाव में ही बेचनी पड़ी। डीपी उन 11 मासूम बच्चों को गोद ले लेता है। इन 11 बच्चों में से एक बच्चा धीरम गंभीर बीमारी से ग्रसित हो जाता है। डीपी धीरम को अमेरिका अपने पास बुलवाकर उसका अच्छे से इलाज करवाता है। इलाज में काफ़ी पैसा ख़र्च होता है। डीपी पैसा कमाने के लिए टैक्सी भी चलाता है। धीरम धीरे-धीरे ठीक होने लगता है। इधर शेयर मार्केट और ज़मीन, मकान के सौदों में डीपी अपनी मेहनत, बुद्धि और लगन से काफ़ी पैसे कमा लेता है। वह अब जीवन ज्योत संस्था और अपने गाँव को भरपूर पैसा भेजने लगा। अब डीपी का काम था सेमीनार, वर्कशॉप और कक्षाओं के माध्यम से अपने अनुभवों को बाँटना। धन्नू उर्फ़ डीपी उर्फ़ कुबेर ने अपने गाँव को ही नहीं अपने गाँव के आसपास के गाँवों को भी कुबेरमयी बना दिया। अब धन्नू के पास ख़ज़ानों के कई भण्डार हैं। एक देश में ही नहीं, कई देशों में हैं। कुबेर एक विचार से प्रस्फुटित हुआ, क्रांति की तरह फैला और एक तीली से ज्वाला लेकर मशाल में परिवर्तित हो गया।

पुस्तक में यहाँ वहाँ बिखरे सूत्र वाक्य उपन्यास के विचार सौंदर्य को पुष्ट करते हैं। जैसे – 

  • वैसे भी काम करवाना तो हर कोई जानता है पर काम को सम्मान देना हर किसी के बस की बात नहीं। (पृष्ठ 32)
  • मन के रिश्तों को बनने के लिए कभी किसी शब्द की जरूरत नहीं पड़ती। (पृष्ठ 71)
  • हर किसी को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है। (पृष्ठ 78)
  • बगैर सैनिकों के दो देशों की सीमा रेखाएँ बहुत कुछ कहती हैं, बहुत कुछ सिखाती हैं। मानवता के पाठ, शान्ति के पाठ, नागरिकों की आपसी समझ और विश्वास के पाठ। (पृष्ठ 121)
  • उम्र की लकीरों में समझने और समझाने का कौशल छुपा होता है जो हर बढ़ती लकीर के साथ निखरता जाता है। (पृष्ठ 125)
  • एक जमा पूँजी थी मन में दादा की दी हुई कि - "सब अपने हैं, सबका दु:ख अपना है, सबकी ख़ुशी अपनी है।" (पृष्ठ 127)
  • ”मैं ऑटोग्राफ देना नहीं बनाना चाहता हूँ। आपको बनाना चाहता हूँ इस लायक कि मैं एक दिन आपसे ऑटोग्राफ माँग सकूँ।”(पृष्ठ 241)
  • तालियाँ अब भी बज रही थीं। उनकी थमती साँसों में मानो हर बजती ताली उनके कानों में फुसफुसा रही थी - "यहाँ एक नहीं, कई कुबेर खड़े हैं।" (पृष्ठ 259, उपन्यास का अंतिम वाक्य)

हिंदी साहित्य में कुबेर एक अनूठा उपन्यास है। कथा नायक का संघर्ष बड़ा है, पर कथन-भंगिमा सामान्य है। यही बात उपन्यास को विशिष्टता प्रदान करती है। लेखिका का यह उपन्यास कुबेर ऐसा समसायिक उपन्यास है जो आज तो प्रासंगिक है ही भविष्य में भी प्रासंगिक रहेगा। पुस्तक पाठकों को अपने कर्म-जीवन की यात्रा पर सोचने पर विवश करती है। उपन्यास के भाव पक्ष के साथ ही भाषा पक्ष भी सुदृढ़ है। इस उपन्यास के माध्यम से डॉ. हंसा दीप ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। यह उपन्यास समकालीन हिंदी उपन्यासों के परिदृश्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हुआ है। यह एक प्रेरणादायी उपन्यास है। इसे महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। डॉ. हंसा दीप एक सशक्त और दिलचस्प उपन्यास लिखने के लिए बधाई की पात्र है। 

दीपक गिरकर
समीक्षक
28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड,
इंदौर- 452016
मोबाइल : 9425067036
मेल आईडी : deepakgirkar2016@gmail.com


 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में