सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
द्विजेन्द्र ’द्विज’सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
रौशनी फिर भी हमारे संग बतियाती रही
स्वार्थों की धौंकनी वो आग सुलगाती रही
गाँव की सुंदर ज़मीं पर क़हर बरपाती रही
सत्य और ईमान के सब तर्क थे हारे - थके
भूख मनमानी से अपनी बात मनवाती रही
बेसहारा झुग्गियों के सारे दीपक छीन कर
चंद फ़र्मानों की बस्ती झूमती - गाती रही
खुरदरे हाथों से लेकर पाँवों के छालों तलक
रोटियों की कामना क्या-क्या न दिखलाती रही
रास्ता पहला क़दम उठते ही तय होने लगा
रास्तों की भीड़ बेशक उसको उलझाती रही।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
 - 
              
- अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
 - आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
 - कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
 - जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
 - जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
 - देख, ऐसे सवाल रहने दे
 - न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
 - नये साल में
 - पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
 - बेशक बचा हुआ कोई भी उसका पर न था
 - यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
 - ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
 - सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
 - हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में
 - ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
 
 - विडियो
 - 
              
 - ऑडियो
 -