जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
द्विजेन्द्र ’द्विज’जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
उन्हीं की जी-हुज़ूरी है , उन्हीं को ही नमस्ते हैं
ये फ़स्लें पक भी जाएँगी तो देंगी क्या भला जग को
बिना मौसम ही जिन पे रात-दिन ओले बरसते हैं
कई सदियों से जिन काँटों ने उनके पंख भेदे हैं
परिन्दे हैं बहुत मासूम उन्हीं काँटों में फँसते हैं
कहीं हैं ख़ून के जोहड़ , कहीं अम्बार लाशों के
समझ अब ये नहीं आता ये किस मंज़िल के रस्ते हैं
अभागे लोग है कितने इसी सम्पन्न बस्ती में
अभावों के जिन्हें हर पल भयानक साँप डसते हैं
तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं
हमारे ख़्वाब में ‘द्विज’ सिर्फ़ रोटी - दाल बसते हैं।
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