अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
द्विजेन्द्र ’द्विज’अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी
लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी
मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी
कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी
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