बेशक बचा हुआ कोई भी उसका पर न था
द्विजेन्द्र ’द्विज’
बेशक बचा हुआ कोई भी उसका पर न था
हिम्मत थी हौसला था परिन्दे को डर न था
 
धड़ से कटा के घूमते हैं आज हम जिसे
झुकता कभी ये झूठ के पैरों पे सर न था
 
क़दमों की धूल चाट के छूना था आसमान
थे हम भी बाहुनर मगर ऐसा हुनर न था
 
भूला सहर का शाम को लौटा तो था मगर
जाता कहाँ वो घर में कभी मुन्तज़र न था
 
सूरज का एहतिराम किया उसने उम्र भर
जिसका कहीं भी धूप की बस्ती में घर न था
 
उसने हमें मिटाने को माँगी ज़रूर थी
यह और बात है कि दुआ में असर न था
 
मंज़िल हमारी ख़त्म हुई उस मुक़ाम पर
सहरा की रेत थी जहाँ कोई शजर न था
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