पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
द्विजेन्द्र ’द्विज’पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
खास जो संदर्भ थे , ज़बरन वो झुठलाए गए
आँखों पर बाँधी गईं ऐसी अँधेरी पट्टियाँ
घाटियों के सब सुनहरे दृश्य धुँधलाए गए
घाट था सब के लिए लेकिन न जाने क्यों वहाँ
कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन-चुन के नहलाए गए
साथ उनके जो गए हैं लोग उनको फिर गिनो
ख़ुद-ब-खुद कितने गए और कितने फुसलाए गए
जब कहीं ख़तरा नही था आसमाँ भी साफ़ था
फिर परिन्दे क्यों यहाँ सहमे हुए पाए गए
आदमी को आदमी से दूर करने के लिए
आदमी को काटने के दाँव सिखलाए गए
ज़िन्दगी से भागना था ‘द्विज’, दुबकना नीड़ में
मंज़िलों तक वो गए जो पाँव फैलाए गए
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
 - 
              
- अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
 - आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
 - कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
 - जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
 - जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
 - देख, ऐसे सवाल रहने दे
 - न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
 - नये साल में
 - पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
 - बेशक बचा हुआ कोई भी उसका पर न था
 - यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
 - ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
 - सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
 - हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में
 - ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
 
 - विडियो
 - 
              
 - ऑडियो
 -