रोज़गार

15-03-2023

रोज़गार

नव पंकज जैन (अंक: 225, मार्च द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

कई दिनों के अवकाश के बाद ऑफ़िस जाते हुए देखा कि सड़क पर रोज़ की तरह भीड़ नहीं है। पटरियों पर न तो खोमचे वाले और न ही सिग्नल पर दीपू, जिससे मैं अख़बार ख़रीदता था, नज़र आया। मोज़ी पूड़ी सब्ज़ी वाला जहाँ मैं अख़बार पढ़ते हुए नाश्ता करता था, भी नहीं था। 

एक भिखारी जो सिग्नल पर अपनी क़मीज़ से गाड़ियों को साफ़ करके पैसे माँगता था, रोज़ की तरह व्यस्त था। ऑफ़िस जाते हुए मैं थोड़ा पहले निकलता था ताकि नाश्ता करते हुए अख़बार पढ़ सकूँ। अगले दिन भी जब पटरियों पर, उस भिखारी के आलावा, कोई नहीं दिखा तो मैंने भिखारी से पूछा कि पटरी वाले कहाँ गये। उसने बताया कि सड़क पर आगे एक रोज़गार मेला लगा है जिसका उद्‌घाटन तीन दिन पहले नेता जी ने किया है। मेले में आने वाली नामी कम्पनियों को गंदा न लगे इसलिए पटरी वालों का सामान नगरनिगम वाले उठा ले गये। यह सुनकर मेरा ध्यान दीपू की ओर चला गया। पिछले साल जब मैं इस शहर में आया, तो मैंने उसे सिग्नल पर अख़बार बेचते देखा था। वह अख़बार बेचने मेरे पास भी आया था। मैंने अख़बार तो नहीं लिया मगर पूछा ज़रूर था कि पढ़ते-लिखते नहीं हो? तो वह बोला कि पढ़ सकूँ इसलिए तो अख़बार बेचता हूँ। मैं कुछ आगे बोलता, बत्ती हरी हो गई। अगले दिन जब नाश्ता करते समय दीपू पटरी पर अख़बार लिए बैठे दिखा तो उससे पूछा कि कल तूने कहा था कि अख़बार इसलिए बेचता हूँ ताकि पढ़ सकूँ। वह बोला कि वह रोज़ 12 से 5 बजे तक स्कूल जाता हूँ। यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा व मैं रोज़ उससे अख़बार लेने लगा। 

मैंने उसके माँ-बाप के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वे, तीन साल पहले, एक निर्माणाधीन बिल्डिंग जोकि कुछ इंजीनियरों की लापरवाही के कारण ढह गई थी, में मज़दूरी करते हुए मारे गये, वह अब अपने चाचा चाची के साथ रह रहा है। मुआवजे का मामला कोर्ट में अटका हुआ है, तीन साल से। चाचा भी मज़दूर हैं। उनके दो बच्चे हैं। उसने चाचा से मज़दूरी दिलाने को कहा था तो बताया कि बच्चों से मज़दूरी करवाना ग़ैरक़ानूनी है। माँ बाप की मौत के बाद स्कूल जाना बंद हो गया था लेकिन चाचा के कहने पर वह स्कूल जाने लगा। रोज़ का राशन ख़रीदने में चाचा की मदद हो इसलिए अख़बार बेचता हूँ। चाचा को रोज़ मज़दूरी के 300रुपए मिलते है। महँगाई में 5 लोगों की रोज़ की रोटी का इंतज़ाम ही मुश्किल है पढ़ाई-लिखाई तो दूर, और मज़दूरी भी रोज़ कहाँ मिलती है। 

मुझे मालूम हुआ कि मेला एक महीने तक चलना था। ऑफ़िस जाते हुए रोज़ मैं दीपू की तलाश में रहता। मगर गाड़ी साफ़ करने वाला लड़का रोज़ दिखता था। एक दिन ऑफ़िस जाते हुए ऐसा लगा कि एक गाड़ी के पीछे कोई मुझसे छिपने का प्रयास कर रहा है। मैंने चौराहा पार करके स्कूटर साइड में खड़ा किया ताकि जान सकूँ कि वह कौन है? वह कोई और नहीं, दीपू था जो अपनी क़मीज़ से गाड़ियों को साफ़ कर रहा था। यह देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। 

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