रोशनी की नदी
वैदेही कुमारीरोशनी की नदी
फैली थी कभी
आज पसरा निराशा का अँधेरा हर कहीं
टूटती विश्वास की नींव
जैसे हो कोई ढेर मिट्टी का
उबरे थे मुश्किलों से
लगा न होंगे हालात बद से बदतर
आखें खोलीं तो
दहल गया दिल देख कर मौत का मंज़र
मचा चारों ओर हाहाकार
सुनाई देती दर्द और मौत की चीत्कार
लोग देते दोष इसको–उसको
जाने किस-किस को
पर वक़्त नहीं है ये आसान
ख़ुद पे भरोसा और बचानी होगी ख़ुद की जान
होकर बंद घरों में
करना होगा ख़ुद ही सारा काम
ना जाएँगे बाहर
ना लगाएँगे वेवज़ह घरों में जाम
थमेगा ये दौर भी
होंगी सड़कें फिर से गुलज़ार
तब तक अपनाएँ
सुरक्षा की एहतियात हर बार।
1 टिप्पणियाँ
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बहुत ही सुंदर कविता