हर शाख़ पे उल्लू बैठा
वैदेही कुमारी शाख़ ये कैसी
रहता जिस पर उल्लुओं का मेला
जाने कैसा है ये क़िस्सा
जिसे सबने सुना
क्या है ये आँखोंदेखा
या है कोई राज़ ये गहरा
कहता ग़ालिब हम सब से यहाँ
एक उल्लू ही काफ़ी
बर्बाद करने को ये गुलिस्तां
सोचो हो मंज़र कैसा
जब हर डाली पर उल्लुओं का क़ब्ज़ा
पर कुछ अजीब आज पता चला
ये रहते दिन में भी यहाँ
कभी ओढ़ जाति की चादर
कभी कहते बदली आवो-हवा
करते नाटक ये सदा
कहते ख़ुद को ग़रीबों का मसीहा
चूस कर ख़ून जनता का
सूखी हड्डी का देते तोहफ़ा
कहते कुछ, दिल में कुछ और ही होता
जैसे पहना हो कोई मुखौटा
लड़ते एक-दूसरे से ऐसे
जैसे हो कोई गली का कुत्ता
पर रात के अँधियारे में अक़्सर
मिल कर करते षड्यंत्र ये गहरा
है ये हमारे पालन कर्ता
जिनको बस ख़ुद का पेट है भरना।