महापात्र

01-02-2023

महापात्र

डॉ. प्रभाकर शुक्ल (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

शाम के सात बज रहे थे। बनारस स्टेशन पर इस समय ज़्यादा भीड़ नहीं थी, कारण नई दिल्ली जाने वाली शिवगंगा एक्सप्रेस का समय बदल गया था। केवल कुछ ही मुसाफ़िर बेंचों पर बैठे थे जो दूर से आये थे और उन्हें ट्रेन के समय परिवर्तन का ज्ञान नहीं था। उन्हीं में एक थी वह लड़की जो शांत भाव से ग्रेनाइट के चबूतरे पर बैठी पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थी। उसका एयर बैग उसके बग़ल में ही था जो शायद ज़्यादा भारी नहीं था। अचानक उसे लगा जैसे कोई बैग को उठा रहा है। उसने पत्रिका को आँखों के सामने से हटाया तो देखा कोई लड़का बैग ले जा रहा था। 

वह ज़ोर से चिल्लाई और उठकर दौड़ी तो वह लड़का भी भागने लगा। तभी आगे बेंच पर बैठे एक युवक ने भागते आ रहे लड़के के आगे अपना पैर फैला दिया, लड़का टकरा कर गिर गया और उसके हाथ से बैग भी छूट गया। तब तक लड़की वहाँ पहुँच चुकी थी। 

लड़की ने झुककर पहले अपना बैग उठाया फिर चिल्लाई, “चोरी करके भाग रहा था।” पर लड़का तब तक कई लोगों के बीच घिर चुका था। उसकी नाक से ख़ून बह रहा था। किसी ने उसे दो थप्पड़ रसीद कर दिए और बोला—इसे पुलिस को सुपुर्द करना होगा। लड़की को उसकी हालत और उम्र देखकर दया आ रही थी। उसने पूछा, “क्यों ये काम करते हो? आज चोट लगी कल पुलिस की बेंत पड़ सकती है, गोली भी लग जाये तो क्या भरोसा?” 

लड़का भीड़ में घिरा चुपचाप सर झुकाये खड़ा था। लड़की ने फिर पूछा, “घर में कौन है?” 

अब लड़के ने सर उठाया और डरे भाव से बोला, “माँ बीमार है। बाप नहीं है।”

लड़की ने अपने रुमाल से उसके नाक का ख़ून पोंछा और सौ रुपये का नोट देकर कहा, “हो सके तो ये सब छोड़ देना। कोई भी काम करना पर ग़लत नहीं।”

लोग शोर मचाने लगे, “दया मत दिखाइये, साले को पुलिस लॉकअप में जाने दें।”

लड़की ने बड़े शांत स्वर में कहा, “घटना मेरे साथ हुई है, मुझे कोई केस नहीं करना है।” यह कहकर उसने लड़के को जाने का इशारा किया। लड़का सरपट वहाँ से निकल गया। ट्रेन भी प्लैटफ़ॉर्म पर लग रही थी। लोग ट्रेन की ओर चल पड़े। लड़की का कोच पीछे था वह भी अपना बैग उठाकर चल पड़ी। थोड़ी देर बाद वहाँ पुलिस का एक कांस्टेबल प्रगट हो गया पर वहाँ ना भुक्तभोगी थी, ना मुल्ज़िम, ना गवाह। 

नई दिल्ली स्टेशन पर काफ़ी भीड़ थी पर लड़की को कोई परेशानी नहीं हुई। उसकी घनिष्ट सीनियर एकता उसे लेने आयी थी जो वहाँ एक साल से आईएएस प्रतियोगिता के लिए कोचिंग कर रही थी। पी जी होम पहुँच कर जल्दी से तैयार होकर उन्हें 11 बजे ग्रेटर कैलाश पहुँचना था जहाँ वह कोचिंग इंस्टिट्यूट था। एकता ने पहले वहाँ उसके एडमिशन की प्रक्रिया पूरी करायी फिर उसे कैंटीन में छोड़कर अपने क्लास में चली गयी। श्वेता नाम था उस लड़की का जिसे अभी दो घंटे अकेले बैठकर काटने थे। उसकी क्लास दो दिन बाद शुरू होनी थी। चाय स्नैक्स का ऑर्डर देकर वह कोने के एक टेबल पर बैठ गयी और कोचिंग से मिले पेपर्स देखने लगी। तभी उसके सामने एक नवयुवक आकर बोला, “आप वही हैं ना जिसका बनारस स्टेशन पर चोर बैग लेकर भाग रहा था और आपने उसे छोड़ दिया था।”

श्वेता ने नज़र उठाकर अजनवी इंसान को देखा फिर बोली, “हाँ, मैंने उसे माफ़ कर दिया था क्योंकि वह अबोध बालक था पेशेवर चोर नहीं।”

“ऐसे ही इनकी आदत बिगड़ती है और ये पेशेवर हो जाते हैं,”वह बोला। 

“ज़रूरी नहीं है। सभी मुजरिम पेशेवर नहीं होते, मजबूरी या दबाव भी कारण होते हैं। हाँ कभी-कभी लोग सनक में या शौक़िया भी जुर्म करते हैं पर उनकी गिनती कम होती है,”श्वेता बड़े रूखे ढंग से बोली। 

“छोड़िये, मैं तो बस आपको यहाँ देखकर यूँ ही आ गया। मेरा नाम प्रवेश मिश्रा है, जौनपुर का रहने वाला हूँ। आपका?” 

वह नवयुवक बोला जो अभी भी टेबल के पास खड़ा था। 

श्वेता ने एक नज़र उसकी ओर डाली फिर बोली, “मैंने ना तो आपका नाम पूछा ना आप कहाँ के रहने वाले हैं? ख़ैर, जब आपने पूछा है तो बता देती हूँ क्योंकि अब यहीं रहना है तो रोज़ ही मिलना होगा तो फिर अपरिचित क्यों रह जायें? मेरा नाम श्वेता पाण्डेय है और मैं बनारस के बग़ल में चंदौली की रहने वाली हूँ। यहाँ आने का प्रयोजन जो आपका है वही मेरा भी है। इज़ इट ओके?” 

“आप लगता है नाराज़ हो गयीं। अभी तक मुझे बैठने के लिए भी नहीं कहा।” 

“आइ एम सॉरी। आप बैठिये यहाँ, मुझे कोई एतराज़ नहीं। फिर आप तो मेरे पड़ोस के जनपद के निकल गए।”

युवक कुछ सामान्य हो गया और बैठते ही खाने-पीने के लिए पूछा तो श्वेता ने जवाब दिया कि जब आप आये तभी मैं स्नैक्स और चाय ले चुकी थी आप अपने लिए मँगा लें। 

“क्या आप मेरा साथ नहीं देंगी?” युवक का प्रश्न था। 

“नहीं, एक बार ही काफ़ी है,” श्वेता ने तुरंत जवाब दिया। 

उसकी चाय आ गयी तो वह चुस्की लेते हुए मुस्कुराने लगा फिर श्वेता की ओर देखकर बोला, “आपको पता है कि जौनपुर की फ़ेमस चीज़ क्या है? नहीं ना, तो जान लीजिये, इमरती। प्रतियोगी परीक्षा के लिए यह भी ज़रूरी है।”

बहुत देर के बाद श्वेता के चेहरे पर भी हलकी सी मुस्कुराहट आयी और बोली, “जौनपुर की मूली भी बहुत मोटी होती है।”

“आपको कैसे पता?” आश्चर्य से वह बोला। 

बड़े निर्विकार भाव से वह बोली, “प्रतियोगी परीक्षा के लिए यह भी ज़रूरी है।” अबकी बार दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। तभी एकता आ गयी और अजनबी युवक की ओर बिना कोई ध्यान दिए उससे चलने का इशारा किया। श्वेता भी बग़ैर कुछ कहे उठकर चल दी। प्रवेश उनके बिना कुछ कहे चले जाने पर आश्चर्य से देखता रहा फिर मुस्कुराता हुआ चाय की अंतिम चुस्कियों में खो गया। 

एक ही कोचिंग में होने के कारण परिचय मित्रता और फिर प्रगाढ़ता में परिवर्तित होता चला गया। श्वेता वैसे तो कम बोलती और गंभीर रहती पर प्रवेश उसे हँसाने की कोई कोशिश बाक़ी नहीं रखता। एक बार प्रवेश ने बताया कि वह कान्यकुब्ज ब्राह्मण है और उसके पूर्वज कान्य कुब्ज प्रदेश जो आज का कन्नौज है के मूल निवासी थे। श्वेता ने कहा कि मैं तो सिर्फ़ ब्राह्मण जानती हूँ इससे ज़्यादा कुछ नहीं। तब प्रवेश बोला कि ब्राह्मणों के कई वर्ग हैं और हर प्रदेश में अलग-अलग। जैसे कश्मीर में कौल, पंडिता, पंजाब में जेटली, भारद्वाज, गुजरात में मेहता, त्रिवेदी तो बंगाल में गाँगुली, भट्टाचार्य, बैनर्जी। श्वेता ने उसकी बात काटते हुए ने कहा कि इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है और अब ये सब कौन देखता है? 

प्रवेश बोला कि ये सब जानना चाहिए। कभी कान्यकुब्ज श्रेष्ठ ब्राह्मण माने जाते थे क्योंकि वो ना दान लेते थे ना पुरोहित का काम करते थे, केवक गुरुकुल चलाकर जीविकोपार्जन करते थे। पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। श्वेता ऊबकर खड़ी हो गयी और बोली कि बस करो ये ज्ञान का प्रवचन, इससे हमारा क्या मतलब है? 

प्रवेश मुस्कुरा कर बोला, “प्रतियोगी परीक्षा के लिए यह भी ज़रूरी है।”

श्वेता इतनी ज़ोर से हँसी कि पास में बैठे लोग चौंक कर उनकी ओर देखने लगे। 

एक साल बीतने को था। प्रतियोगी परीक्षा का समय नज़दीक आ रहा था। श्वेता और प्रवेश जी-जान से तैयारी में जुटे हुए थे। कोचिंग के अलावा छुट्टी के दिन वे कभी बिरला मंदिर तो कभी अक्षरधाम मंदिर निकल जाते और वहाँ पूरा दिन अध्ययन और आपस में सवाल-जबाब में निकल देते। उम्मीद यही थी कि पहले प्रयास में ही सफलता हासिल हो जाये। पर यूपीएससी का इम्तिहान उनके सर के ऊपर से निकल गया। पहला अनुभव और प्रतियोगी परीक्षा के प्रश्नों की असीमता ने उन्हें निराश कर दिया। विचार में आया कि आईएएस के साथ पीसीएस में भी हाथ आज़माया जाये। अभी काफ़ी समय था। फिर से दोबारा नये ढंग से कार्य योजना बनाकर तैयारी शुरू हो गयी। दिन-रात पढ़ाई और कुछ सोचने का अवसर ही नहीं था। हाँ इस प्रयास ने उन्हें अत्यधिक क़रीब ला दिया। आत्मीयता का बोध अंदर गहरे तक समा गया। ऐसा लगता मानो वे एक दूसरे को सालों से जानते हैं। शायद इसे ही स्नेह का अंकुरण कहते हैं। नज़दीकियाँ, संबंधों में प्रगाढ़ता और अपनत्व का भाव इंसान को इतना क़रीब ला देता है कि पता ही नहीं चल पाता। अब उन्हें एक दूसरे कि फ़िक्र भी होने लगी थी। 

आख़िर पीसीएस परीक्षा के लिए उनका भगीरथ प्रयास रंग लाया और उनकी मेहनत सार्थक सिद्ध हो गयी। प्रवेश की मेरिट बहुत अच्छी आयी थी, श्वेता की कुछ नीचे थी पर दोनों का चयन होना तय था। 

उम्मीद के अनुसार ही प्रवेश का चयन डिप्टी कलेक्टर के पद पर तो श्वेता का पुलिस उपाधीक्षक पद पर हो गया। आईएएस की पुनः तैयारी का संकल्प लेकर दिल्ली से विदा लेने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। पहले उन्हें घर पहुँचना था फिर सूचना मिलने के बाद तैयारी के साथ ट्रेनिंग के लिए जाना था। दोनों की ट्रेन एक ही थी पर चेहरे पर उदासी की बदली छायी हुई थी। 

ट्रेन में बैठने के बाद प्रवेश ने बहुत गंभीर स्वर में कहा, “श्वेता अब तो हमारा सरकारी सेवा में चयन भी हो गया है तो क्या हम सदैव के लिए एक हो सकते हैं?” 

श्वेता कुछ क्षण सोचने का नाटक करने लगी फिर बोली, “शायद हाँ।” 

प्रवेश के चेहरे पर ख़ुशी की अभूतपूर्व चमक आ गयी। वह बोला, “थैंक यू श्वेता। तुमने मेरे मन की अभिलाषा को साकार कर दिया। तुम्हारे सिवा मैं कुछ और सोच भी नहीं सकता हूँ।”

श्वेता भी मगन होकर बोली, “ठीक है, पहले ट्रेनिंग और ज्वाइनिंग तो हो जाये।”

मगर प्रवेश अधीर होकर बोला, “क्या तुम अपने पिताजी से मेरे घर जाने और बाबूजी से बात करने को कहोगी?” 

“देखती हूँ, दरअसल मैं अपने पिताजी से बचपन से बहुत डरती हूँ पर अब बात करूँगी।”

रात हो चुकी थी और ट्रेन अपने गंतवय की ओर अग्रसर थी। दोनों अपने बर्थ पर सपनों की दूसरी दुनिया में खो चुके थे। 

जौनपुर स्टेशन पर प्रवेश को उतरना था पर दोनों ऐसे ग़मगीन थे मानो बरसों के साथी बिछुड़ रहे हों। ट्रेन के चले जाने तक प्रवेश प्लैटफ़ॉर्म पर ही खड़ा रहा। श्वेता के नयन ख़ुशी और ग़म दोनों से लबरेज़ थे। 

घर आकर श्वेता ने अपने मन की बात पहले माँ को बताई फिर माँ ने पिता से बात की। श्वेता के पिता मुरलीधर पाण्डेय के माथे पर संकोच की ऐसी रेखा खिंची हुई थी जो उनके पाँवों को रोक रही थी। वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि प्रवेश के गाँव उसके बाबूजी से मिलने कैसे जाएँ? दरअसल वह महापात्र पंडित थे जिन्हें बाक़ी ब्राह्मण अच्छा नहीं मानते। महापात्र मृतक कार्य और श्राद्ध आदि संपन्न कराते हैं और मृतात्मा के नाम पर दान भी स्वीकार करते हैं। कुलीन ब्राह्मण ना उनसे रिश्ता रखते हैं ना रिश्ता करते हैं। इसलिए उन्होंने बेटी से अपने संकोच को ज़ाहिर कर दिया। श्वेता ने प्रवेश को सारी बात बता दी। प्रवेश ने महापात्र वाली बात का ज़िक्र नहीं करने और सिर्फ अपना गाँव और ब्राह्मण कुल बताने को कहा। उसका विचार था कि अब लोग अंतर्जातीय और दूसरे धर्म में भी विवाह कर रहे हैं। हम एक शिक्षित और ज़िम्मेदार नागरिक होकर क्यों इन रूढ़ीवादी सोच का समर्थन करें? 

सैयदराजा के रहने वाले हैं। तब तक सबके लिए मिठाई और पानी आ गया। मिश्रजी ने जलपान करने का अनुरोध किया। पर मुरलीधर ने कहा कि मैं लड़की का बाप हूँ आपका अन्न जल कैसे ग्रहण कर सकता हूँ, मुझे क्षमा करे। फिर बताया कि वह सकलडीहा बाज़ार में ही रहते हैं। मामाजी का अगला सवाल था कोई और रिश्तेदार आस पास जिसे शायद मैं जानता हूँ? मुरलीधर ने अपने बड़े भाई शशिधर का नाम बताया जो सैयदराजा में रहते है। मामाजी चौंक कर खड़े हो गए और बोले, “शशिधर को मैं जानता हूँ वो तो महापात्र है। मतलब तुम भी महापात्र हो। हद हो गयी। इनकी हिम्मत कैसे हो गयी जीजाजी आपके दरवाज़े पर पैर रखने की? हम लोग क्या इतना गिर गए हैं कि महापात्रों में रिश्ता करेंगे?” 

अब मिश्राजी उठ खड़े हुए। चेहरा तमतमा रहा था। बोले, “अभी निकल जाइये यहाँ से। अधम आदमी तेरी इतनी औक़ात कैसे हो गयी कि एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण के ड्योढ़ी पर पहुँच गया! वह भी रिश्ता लेकर। यहाँ किसकी मरनी हुई है? अपना मिठाई का यह झोला उठा और चला जा यहाँ से। कहाँ कहाँ से चले आते है बे-ग़ैरत लोग।” 

मुरलीधर घबराकर खड़े हो गए। बाक़ी लोग भी खड़े हो गए थे मानो मिश्रजी का अगला जो हुक्म होगा उसे बजाने के लिए तैयार। 

मुरलीधर पाण्डेय के लिए अब वहाँ एक क्षण भी रुकना अपमान की पराकाष्ठा होती। वह मिठाई वाला झोला उठाकर झटपट चल पड़े। उनका बदन काँप रहा था मानो शरीर का ख़ून निचुड़ गया हो पर वह पूरी ताक़त से लम्बे-लम्बे डग बढ़ाये जा रहे थे। कभी-कभी अपमान का घूँट पीना भी मजबूरी हो जाती है। इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। 

मुरलीधर बुझे मन से घर पहुँचे तो काफ़ी रात हो गयी थी। श्वेता सो चुकी थी, पत्नी ने खाना के लिए पूछा तो बोले, “बहुत खा लिया, पेट भर गया, केवल पानी दे दो।” 

पानी लाकर पत्नी आतुर दृष्टि से उन्हें देखने लगी मानो पूछना चाहती हो कि क्या हुआ। पर उनका गंभीर चेहरा देखकर हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मुरलीधर ने पानी पीकर स्वयं कहा कि जाओ सो जाओ सुबह बात करेंगे। चुपचाप खटिया पर लेट गए पर आँखों में नींद कहाँ थी? आँखें छत की ओर टकटकी लगाए स्थिर थी। दिमाग़ में प्रश्नों का झंझवात चल रहा था। वह अपने से सवाल कर रहे थे कि अगर कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था है तो उसमें नीच-ऊँच की दीवार क्यों है? जूता बेचने वाला छोटा नहीं है पर जूता सिलने वाला मोची हेय है। मल-मूत्र कि जाँच करने वाला डॉक्टर सम्मानित है पर नाली-सीवर साफ़ करने वाला अछूत है। कर्मकांडी पंडित कि इज़्ज़त है पर मृतक कर्म करने वाला ब्राह्मण महापात्र है। आज भी सामाजिक कुरीतियाँ हावी हैं और वर्ग विशेष उपेक्षित है। कोई बोलने वाला नहीं है। धर्म के ठेकेदार शबरी और केवट की बात तो करते हैं पर जब अपना वास्ता पड़ता है तो भीष्म पितामह को भी भूल जाते हैं। आदिकाल से तो नहीं था यह भेद भाव फिर कब और किसने इसे जन्म दिया। 

प्रवेश मुस्कुरा कर बोला, “प्रतियोगी परीक्षा के लिए यह भी ज़रूरी है।”

श्वेता इतनी ज़ोर से हँसी कि पास में बैठे लोग चौंक कर उनकी ओर देखने लगे। 

एक साल बीतने को था। प्रतियोगी परीक्षा का समय नज़दीक आ रहा था। श्वेता और प्रवेश जी जान से तैयारी में जुटे हुए थे। कोचिंग के अलावा छुट्टी के दिन वे कभी बिरला मंदिर तो कभी अक्षरधाम मंदिर निकल जाते और वहाँ पूरा दिन अध्ययन और आपस में सवाल-जबाब में निकल देते। उम्मीद यही थी कि पहले प्रयास में ही सफलता हासिल हो जाये। पर यूपीएससी का इम्तिहान उनके सर के ऊपर से निकल गया। पहला अनुभव और प्रतियोगी परीक्षा के प्रश्नों की असीमता ने उन्हें निराश कर दिया। विचार में आया कि आईएएस के साथ पीसीएस में भी हाथ आज़माया जाये। अभी काफ़ी समय था। फिर से दोबारा नये ढंग से कार्य योजना बनाकर तैयारी शुरू हो गयी। दिन-रात पढ़ाई और कुछ सोचने का अवसर ही नहीं था। हाँ इस प्रयास ने उन्हें अत्यधिक क़रीब ला दिया। आत्मीयता का बोध अंदर गहरे तक समा गया। ऐसा लगता मानो वे एक दूसरे को सालों से जानते हैं। शायद इसे ही स्नेह का अंकुरण कहते हैं। नज़दीकियाँ, संबंधों में प्रगाढ़ता और अपनत्व का भाव इंसान को इतना क़रीब ला देता है कि पता ही नहीं चल पाता। अब उन्हें एक दूसरे कि फ़िक्र भी होने लगी थी। 
आख़िर पीसीएस परीक्षा के लिए उनका भगीरथ प्रयास रंग लाया और उनकी मेंहनत सार्थक सिद्ध हो गयी। प्रवेश की मेरिट बहुत अच्छी आयी थी, श्वेता की कुछ नीचे थी पर दोनों का चयन होना तय था। 

उम्मीद के अनुसार ही प्रवेश का चयन डिप्टी कलेक्टर के पद पर तो श्वेता का पुलिस उपाधीक्षक पद पर हो गया। आईएएस की पुनः तैयारी का संकल्प लेकर दिल्ली से विदा लेने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। पहले उन्हें घर पहुँचना था फिर सूचना मिलने के बाद तैयारी के साथ ट्रेनिंग के लिए जाना था। दोनों की ट्रेन एक ही थी पर चेहरे पर उदासी की बदली छायी हुई थी। 

ट्रेन में बैठने के बाद प्रवेश ने बहुत गंभीर स्वर में कहा, “श्वेता अब तो हमारा सरकारी सेवा में चयन भी हो गया है तो क्या हम सदैव के लिए एक हो सकते हैं?” 

श्वेता कुछ क्षण सोचने का नाटक करने लगी फिर बोली, “शायद हाँ।” प्रवेश के चेहरे पर ख़ुशी की अभूतपूर्व चमक आ गयी। वह बोला, “थैंक यू श्वेता। तुमने मेरे मन की अभिलाषा को साकार कर दिया। तुम्हारे सिवा मैं कुछ और सोच भी नहीं सकता हूँ।”

श्वेता भी मगन होकर बोली, “ठीक है, पहले ट्रेनिंग और ज्वाइनिंग तो हो जाये।”मग र प्रवेश अधीर होकर बोला “क्या तुम अपने पिताजी से मेरे घर जाने और बाबूजी से बात करने को कहोगी?” 

“देखती हूँ, दरअसल मैं अपने पिताजी से बचपन से बहुत डरती हूँ पर अब बात करूँगी।”

रात हो चुकी थी और ट्रेन अपने गंतव्य की ओर अग्रसर थी। दोनों अपने बर्थ पर सपनों की दूसरी दुनिया में खो चुके थे। 

जौनपुर स्टेशन पर प्रवेश को उतरना था पर दोनों ऐसे ग़मगीन थे मानो बरसों के साथी बिछुड़ रहे हों। ट्रेन के चले जाने तक प्रवेश प्लैटफ़ॉर्म पर ही खड़ा रहा। श्वेता के नयन ख़ुशी और ग़म दोनों से लबरेज़ थे। 

घर आकर श्वेता ने अपने मन की बात पहले माँ को बताई फिर माँ ने पिता से बात की। श्वेता के पिता मुरलीधर पाण्डेय के माथे पर संकोच की ऐसी रेखा खिंची हुई थी जो उनके पाँवों को रोक रही थी। वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि प्रवेश के गाँव उसके बाबूजी से मिलने कैसे जाएँ? दरअसल वह महापात्र पंडित थे जिन्हेंं बाक़ी ब्राह्मण अच्छा नहीं मानते। महापात्र मृतक कार्य और श्राद्ध आदि संपन्न कराते हैं और मृतात्मा के नाम पर दान भी स्वीकार करते हैं। कुलीन ब्राह्मण ना उनसे रिश्ता रखते हैं ना रिश्ता करते हैं। इसलिए उन्होंने बेटी से अपने संकोच को ज़ाहिर कर दिया। श्वेता ने प्रवेश को सारी बात बता दी। प्रवेश ने महापात्र वाली बात का ज़िक्र नहीं करने और सिर्फ़ अपना गाँव और ब्राह्मण कुल बताने को कहा। उसका विचार था कि अब लोग अंतर्जातीय और दूसरे धर्म में भी विवाह कर रहे है। हम एक शिक्षित और ज़िम्मेदार नागरिक होकर क्यों इन रूढ़ीवादी सोच का समर्थन करें? 

सैयदराजा के रहने वाले हैं। तब तक सबके लिए मिठाई और पानी आ गया। मिश्रजी ने जलपान करने का अनुरोध किया। पर मुरलीधर ने कहा कि मैं लड़की का बाप हूँ आपका अन्न जल कैसे ग्रहण कर सकता हूँ, मुझे क्षमा करें। फिर बताया कि वह सकलडीहा बाज़ार में ही रहते हैं। मामाजी का अगला सवाल था कोई और रिश्तेदार आस पास जिसे शायद मैं जानता हूँ? मुरलीधर ने अपने बड़े भाई शशिधर का नाम बताया जो सैयदराजा में रहते है। मामाजी चौंक कर खड़े हो गए और बोले, “शशिधर को मैं जानता हूँ वो तो महापात्र है। मतलब तुम भी महापात्र हो। हद हो गयी। इनकी हिम्मत कैसे हो गयी जीजाजी आपके दरवाज़े पर पैर रखने की? हम लोग क्या इतना गिर गए हैं कि महापात्रों में रिश्ता करेंगे?” 

अब मिश्राजी उठ खड़े हुए। चेहरा तमतमा रहा था। बोले, “अभी निकल जाइये यहाँ से। अधम आदमी तेरी इतनी औक़ात कैसे हो गयी कि एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण के ड्योढ़ी पर पहुँच गया, वह भी रिश्ता लेकर। यहाँ किसकी मरनी हुई है? अपना मिठाई का यह झोला उठा और चला जा यहाँ से। कहाँ-कहाँ से चले आते है बे-ग़ैरत लोग।” 

मुरलीधर घबराकर खड़े हो गए। बाक़ी लोग भी खड़े हो गए थे मानो मिश्रजी का अगला जो हुक्म होगा उसे बजाने के लिए तैयार। 

मुरलीधर पाण्डेय के लिए अब वहाँ एक क्षण भी रुकना अपमान की पराकाष्ठा होती। वह मिठाई वाला झोला उठाकर झटपट चल पड़े। उनका बदन काँप रहा था मानो शरीर का ख़ून निचुड़ गया हो पर वह पूरी ताक़त से लम्बे-लम्बे डग बढ़ाये जा रहे थे। कभी-कभी अपमान का घूँट पीना भी मजबूरी हो जाती है। इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। 

मुरलीधर बुझे मन से घर पहुँचे तो काफ़ी रात हो गयी थी। श्वेता सो चुकी थी, पत्नी ने खाना के लिए पूछा तो बोले बहुत खा लिया, पेट भर गया, केवल पानी दे दो। पानी लाकर पत्नी आतुर दृष्टि से उन्हें देखने लगी मानो पूछना चाहती हो कि क्या हुआ। पर उनका गंभीर चेहरा देखकर हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मुरलीधर ने पानी पीकर स्वयं कहा कि जाओ सो जाओ सुबह बात करेंगे। चुपचाप खटिया पर लेट गए पर आँखों में नींद कहाँ थी? आँखें छत की ओर टकटकी लगाए स्थिर थी। दिमाग़ में प्रश्नों का झंझवात चल रहा था। वह अपने से सवाल कर रहे थे कि अगर कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था है तो उसमें नीच-ऊँच की दीवार क्यों है? जूता बेचने वाला छोटा नहीं है पर जूता सिलने वाला मोची हेय है। मल-मूत्र कि जाँच करने वाला डॉक्टर सम्मानित है पर नाली-सीवर साफ़ करने वाला अछूत है। कर्मकांडी पंडित कि इज़्ज़त है पर मृतक कर्म करने वाला ब्राह्मण महापात्र है। आज भी सामाजिक कुरीतियाँ हावी हैं और वर्ग विशेष उपेक्षित है। कोई बोलने वाला नहीं है। धर्म के ठेकेदार शबरी और केवट की बात तो करते हैं पर जब अपना वास्ता पड़ता है तो भीष्म पितामह को भी भूल जाते हैं। आदिकाल से तो नहीं था यह भेद भाव फिर कब और किसने इसे जन्म दिया। 

चाय के समय जब पत्नी ने जौनपुर की बात पूछी तो मुरलीधर की बोलते हुए आवाज़ भारी हो गयी और आँखों में आँसू आ गए। सारी बात बताने के बाद बोले कि जीवन में इतना अपमान कभी नहीं हुआ जितना वहाँ जाकर हुआ। श्वेता से पूछा कि क्या प्रवेश को मेरे जाने की बात नहीं बताई थी? जब उसने कहा कि सब कुछ बताया था तो कुछ पलों के लिया वहाँ सन्नाटा पसर गया। कुछ देर बाद मुरलीधर बोले कि हम लाख ऊँचा मुक़ाम हासिल कर लें पर कहलायेंगे निम्न ब्राह्मण ही। लोग महापात्र का छुआ पानी भी नहीं लेते तभी तो उन्होंने मेंरी मिठाई को स्वीकार नहीं किया और चले जाने को कहा। श्वेता का चेहरा तमतमा गया और वह उठकर अपने कमरे में चली गयी। तुरंत मोबाइल पर प्रवेश को कॉल किया और कहा कि इसीलिए तुम कान्यकुब्ज ब्राह्मण की महिमा बखान रहे थे ताकि बाक़ी लोगों को नीचा दिखाया जा सके। क्यों मेरे पिताजी को अपने घर रिश्ता लेकर जाने को कहा? बेइज़्ज़त करने के लिए हम ही बचे थे? पहले से अपने बाबूजी को कॉन्फ़िडेंस में क्यों नहीं लिया? 

प्रवेश चुपचाप सारी बात सुनता रहा एक-बार भी बीच में प्रतिकार नहीं किया। फिर बोला कि आख़िर क्या किया उन्होंने? 

जब श्वेता ने चिल्लाते हुए बताया कि उन्होंने मेरे पिताजी को घर से चले जाने को कहा और जो मिठाई वह ले गए थे उसे भी स्वीकार नहीं किया। प्रवेश एक मिनट तक मौन रहा फिर गंभीर आवाज़ में बोला, “मैं वहाँ नहीं था, शहर गया था। मैं बाबूजी से पूछूँगा।” श्वेता बिफर गयी और बोली, “कोई ज़रूरत नहीं अब इसकी। समझ में आ गया समाज का दोहरा चेहरा। हाँ, हम महापात्र हैं पर मेरे पिताजी ने अपने उसी कर्म और श्रम से मुझे पढ़ा-लिखाकर इस क़ाबिल बनाया। तुम्हारे बाबूजी ने उन्हें हेय दृष्टि से देखा पर मेरे लिए मेरे पिता महान हैं।” इतना कहते-कहते वह टूट गयी और सिसकने लगी। उधर से प्रवेश कि आवाज़ आ रही थी कि श्वेता प्लीज़ मुझे थोड़ा वक़्त दो सब ठीक हो जायेगा। पर श्वेता ने यह कहकर फोन काट दिया कि सॉरी अब कोई बात नहीं हो सकती। 

उसने तुरंत मोबाइल से सिम निकाल दिया और फूट-फूट कर रो पड़ी। पिताजी-माँ कमरे में आ गए और बोले कि बेटा दुखी होने की कोई ज़रूरत नहीं है, जहाँ तेरा रिश्ता लिखा होगा वहाँ होकर रहेगा। भगवान के यहाँ देर हो सकती है पर अंधेर नहीं। 

अगले ही दिन श्वेता ने बाज़ार जाकर दूसरा सिम ले लिया। 

वह इतनी समझदार और सुलझी हुई थी कि माँ-बाप को उसे ढाढ़स देने कि ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उसने इतना ही कहा कि अब वह उन बातों को भूल जाएगी और घर में भी उसकी कोई चर्चा ना हो। 

दो हफ़्ते बाद पुलिस ट्रेनिंग पर जाना था। घर से निकलने पर तमाम इंतज़ाम करने थे। वह माँ के साथ ख़रीददारी और तैयारी में जुट गयी। 

श्वेता की पहली पोस्टिंग पुलिस उपअधीक्षक के रूप में बहराइच में हुई। सीधे-साधे घर की युवती को पहली बार अपराध और अपराधियों को जानने का मौक़ा मिला। वह रात में भी निडर होकर सिपाहियों को लेकर गश्त करती। उसका काम करने का तरीक़ा अलग था। पेशेवर मुजरिमों से तो वह सख़्ती से पेश आती पर युवा लड़कों और पहली बार अपराध करने वालों को सलाखों के पीछे डालने के बाद उनकी कौंसिलिंग भी करती। इसका नतीजा भी मिला। दो लड़के ज़मानत पर छूटने के बाद उससे मिलने आए और फिर कभी इस दलदल में ना गिरने की क़सम खाई। 

श्वेता पुलिस की वर्दी में होते हुए भी सामाजिक रूप से भी सक्रिय रहती। रामलीला हो या मुहर्रम, एक दिन पहले जाकर वह मानिंद लोगों से मिलकर सौहार्द और शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए बात करती। जुलूस में पूरे समय आगे-आगे चलती तो रामलीला में देर रात तक मौजूद रहती। उसकी वजह से दरोगा सिपाही भी मुस्तैद रहते। कप्तान साहब भी उसकी बहुत प्रसंशा करते। पर साल बीतने के पहले ही उसका ट्रांसफ़र हो गया। उसके जाने का लोगों को इतना दुःख था कि वहाँ पहली बार किसी पुलिस अधिकारी की सार्वजनिक रूप से शानदार विदाई हुई। 

दूसरी तैनाती का शहर जौनपुर था। श्वेता के मन में इस नगर को लेकर बहुत दर्द था। पर ड्यूटी के चलते टीस ज़्यादा हावी नहीं हो सकी। वह पूर्ववत अपने ढंग से काम में लिप्त रहती। एक दिन सुबह-सुबह वायरलेस पर ख़बर आयी कि 4 किलोमीटर दूर गाँव में दो पक्षो में भयंकर रूप से मार-पीट हुई है। वह फ़ौरन 2 थानों की फ़ोर्स के साथ मौक़ाये-वारदात पर पहुँच गयी। पुलिस को देखते ही लोग भागने लगे जिनमें से 6 लोग गिरफ़्त में आ गए पर एक बुज़ुर्ग और एक नवयुवक ज़मीन पर लहूलुहान हालत में बेहोश पड़े थे। श्वेता ने उन्हें तुरंत 2 सिपाहियों के साथ अपनी जीप से ज़िला अस्पताल भिजवाया और पूरे गाँव की घेराबंदी कर दी। जिन लोगों ने हमला किया था वो आपस में पट्टीदार थे और ज़मीन का बहुत पुराना मामला कोर्ट में विचाराधीन था जिसमें घायल पक्ष की जीत सुनिश्चित थी। दबिश में जब कोई और नहीं मिला तो श्वेता ने सबके दरवाज़े पर पुलिस  को बैठा दिया क्योंकि गाँव में तनाव का वातावरण बढ़ गया था और पीड़ित पक्ष की ओर से भी महिलाओं और बच्चों पर बदले की नीयत से हमला होने का सुराग़ मिल रहा था। 

अस्पताल में भर्ती बुज़ुर्ग की हालत बहुत ख़राब थी। अत्यधिक रक्तस्त्राव के कारण वह होश में नहीं थे। हाथ और पसली की हड्डी भी टूट गयी थी। युवक को भी काफ़ी चोटें आयी थी पर डॉक्टरों के अनुसार वह ख़तरे से बाहर था। बुज़ुर्ग व्यक्ति गाँव के दबंग पंडित थे जिनका बड़ा दबदबा था। ग्राम प्रधान भी उनका ही आदमी था। अस्पताल में भीड़ लग गयी थी पर जब डॉक्टर ने 2 बोतल ख़ून के इंतज़ाम की बात कही तो काफ़ी लोग खिसक लिए। घायल व्यक्ति का ख़ून ए+ था और ख़ून तुरंत चढ़ाना ज़रूरी था वरना उनकी जान भी जा सकती थी। 5-6 लोगों ने अपना टेस्ट कराया तो एक ए+ का आदमी मिल गया। ख़ून चढ़ने के बाद कुछ सुधार हुआ पर होश नहीं आया। एक बोतल की और सख़्त ज़रूरत थी। श्वेता वहाँ मौजूद थी, उसने डॉक्टर को बताया की उसका ब्लड ग्रुप ए+ है और वह रक्तदान के लिए तैयार है। डॉक्टर ने जब उसका ख़ून निकलवाया तो श्वेता के चेहरे पर संतुष्टि का भाव था पर लोगों में एक पुलिस वाले की ओर से ख़ून देने पर बड़ा कौतूहल था। सब उसकी हाथ जोड़ कर प्रशंसा कर रहे थे। 

दूसरा बोतल चढ़ने से मरीज़ की हालत में काफ़ी सुधार हुआ और रक्तचाप भी नॉर्मल हो गया पर घायल व्यक्ति से किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा था। ग्राम प्रधान और क्षेत्रीय एमएलए को भी बाहर रोक दिया गया। 

अस्पताल में 2 दरोगा और 10 कांस्टेबल की ड्यूटी लगी थी पर श्वेता भी रात भर वहीं रही। सुबह आँखें बोझिल हो रहीं थीं और वह अपने क्वार्टर जाने को सोच रही थी कि एक सिपाही ने आकर बताया कि मरीज़ के बेटे आये हैं और अपने को सँभल का डिप्टी कलेक्टर बता रहे हैं। किसी अधिकारी का आगमन वह भी पीड़ित के पुत्र के रूप में सुनकर श्वेता ने उन्हें तुरंत बुलाने का आदेश दिया पर जिस व्यक्ति ने प्रवेश किया उसे देखकर श्वेता का चौंकना लाज़िमी था क्योंकि वह प्रवेश पाण्डेय था जिसके सानिध्य और बाद में विरक्ति ने श्वेता के जीवन का नज़रिया ही बदल दिया। प्रवेश भी उसे बावर्दी देखकर चौंक गया पर उसे तुरंत समझ में आ गया कि वह यहाँ ड्यूटी पर है। 

फिर अचानक बड़े तैश में पूछा, “कैसे हुआ ये? कौन लोग थे? कितने लोग पकड़े गए?” 

श्वेता ने बिना कुछ बोले एक दरोगा को इशारा किया और वह सारे वाक़ए की जानकारी देने लगा। श्वेता बाहर निकली और अपने ड्राइवर को गाड़ी लाने का इशारा किया। जीप आते ही बिना पीछे देखे वह अपने क़्वार्टर के लिए निकल गयी। प्रवेश तब तक अस्पताल के गेट पर आ चुका था। 

प्रवेश को सारी घटना का पता चल गया और यह भी कि श्वेता ने उसकी अनुपस्थिति में बाबूजी को अपना ख़ून दिया और रात भर अस्पताल में रही। पुलिस ने मुखबिरों का ऐसा जाल फैलाया कि 2 दिन के अंदर ही सारे हमलावार पकड़े गए। प्रवेश श्वेता का शुक्रिया अदा करने उसके ऑफ़िस पहुँचा। श्वेता ने पूरी औपचारिकता से उसका स्वागत किया और कॉफ़ी पिलायी। बाबूजी का भी हालचाल पूछा और मीटिंग में जाने कि बात कहकर उठने लगी। प्रवेश उससे और भी कुछ कहना चाहता था पर उसे मौक़ा ही नहीं मिला। तीसरे दिन वह कप्तान साहब से मिलने गयी और 7 दिन की छुट्टी के लिए आवेदन किया। चूँकि अपराधी पकड़े जा चुके थे और चार्ज शीट भी बन चुकी थी इसलिए कप्तान साहब उससे ख़ुश थे, फ़ौरन छुट्टी ग्रांट कर दी। श्वेता को घर आये काफ़ी दिन हो गए थे, माँ और पिताजी की बहुत याद आ रही थी। प्रवेश से भी वह बचना चाहती थी। एक घंटे के अंदर वह अपने क्वार्टर से निकल गयी। 

दस दिन बाद प्रवेश अपने बाबूजी को अस्पताल से डिस्चार्ज कराकर घर ले आया। 

उसने बाबूजी को सब कुछ बता दिया। पंडित रामानुज मिश्र को आत्म ग्लानि होने लगी। उन्होंने श्वेता से मिलने कि इच्छा जताई पर श्वेता अभी घर से लौटी नहीं थी। उसने अपनी छुट्टी बढ़वा ली थी। प्रवेश को भी जाना था। पन्द्रह दिन बाद फिर आने और श्वेता से मिलवाने की बात कह कर वह भी चला गया। 

श्वेता ने ड्यूटी ज्वाइन की तो पता चला कि रामानुज मिश्र के यहाँ से कोई दो बार आया था, वह उससे मिलना चाहते थे। श्वेता ने ख़बर भिजवा दी कि वह आकर मिल सकते हैं। अगले ही दिन मिश्रजी चार लोगों के साथ बोलेरो गाड़ी से उसके ऑफ़िस पहुँच गए। मिलते ही हाथ जोड़कर धन्यवाद कहा। श्वेता ने बिना किसी सम्बोधन के कहा कि जो मेरा फ़र्ज़ है वही मैं सबके लिए करती हूँ। मिश्रजी कुछ और कहना चाहते थे पर श्वेता ने कहा कि घटना की पुनरावृत्ति ना हो इसलिए पट्टीदारों की जो ज़मीन क़ब्ज़ा किये हुए हैं उसे आपसी सुलह से सुलझा लें। इस बात पर मिश्रजी सन्न रह गए। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि यह बात उसे मालूम होगी। उनका मूड किरकिरा हो गया और वह वहाँ से निकल गए। 

चाव साल बीत गए। श्वेता का ट्रांसफ़र लखनऊ हो गया और प्रवेश का भी। अब अक़्सर मीटिंग में भेंट हो जाती थी। एक दिन प्रवेश ने पूछा कि अभी तक शादी क्यों नहीं की। श्वेता ने कहा कि अब मुझे शादी में कोई रुचि नहीं है। फिर पूछा कि तुम्हारे कितने बच्चे हो गए। प्रवेश खिलखिला कर हँस पड़ा। बोला, “शादी ही नहीं हुई तो बच्चे कहाँ से आएँगे? लेकिन अभी भी किसी का इंतज़ार है।”

श्वेता ने भी हँस कर पूछा, “किसका? कौन है जो अभी तक इंतज़ार करा रही है?” 

“वही जो सामने होकर भी इंतज़ार करवा रही है,”प्रवेश ने मुस्कुराते हुए कहा। 

श्वेता ने भी जवाबी मुस्कुराहट के साथ कहा, “अच्छा है, तब तो रिटायरमेंट तक इंतज़ार करना होगा।”

प्रवेश बोला, “अंतिम यात्रा तक इंतज़ार कर सकता हूँ।” 

श्वेता उठ कर खड़ी हो गयी और प्रवेश के ओठों पर अपना हाथ रख कर बोली, “अशुभ बात क्यों बोलते हो?”

श्वेता कि आँखें अनायास भीग गयीं। प्रवेश के ओंठ भी कुछ कहने के लिए आतुर थे तभी सामने के मंदिर से शंख बजने की ध्वनि आने लगी। दोनों के चेहरे पर बहुत दिनों के बाद ख़ुशी की चमक दिख रही थी। 
 

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