दाई नहीं माई
डॉ. प्रभाकर शुक्लवैंकुवर, कैनेडा में आयोजित परिवारिक चिकित्सा के विश्व सम्मलेन में शिरकत करने का मुझे निमंत्रण प्राप्त हुआ था। मेरी यात्रा का पहला पड़ाव इंग्लैंड था। लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरने के बाद मेरा पड़ाव बीबीसी प्रसारण केंद्र के निकट स्थित वाईएमसीए गेस्ट हाउस था जिसकी सदस्यता मैंने पहले से ले रखी थी। वहाँ पहुँचते ही मेरा पहला साक्षात्कार एक भारतीय से हुआ जो रिसेप्शन डेस्क पर मौजूद था। मुझे देखते ही उसकी प्रफुल्लित आवाज़ गूँजी, “आओ बिरादर।” मैं आश्चर्य में पड़ गया, इसे कैसे अंदाज़ हो गया कि मैं हिंदीभाषी क्षेत्र का हूँ। शक्ल से तो हिंदुस्तानी कि पहचान हो सकती है पर ये आओ बिरादर? ज़रूर ये शख़्स भी यूपी का ही होगा। और सचमुच वह बहराइच यानी यूपी का ही निकला। मुझे उससे मिलकर जितनी ख़ुशी हुई उससे ज़्यादा उसके हिंदी उच्चारण से वह भी सात समुन्दर पार लंदन में।
लंदन यात्रा मेरे लिए अविस्मरणीय रही। विश्व प्रसिद्ध मैडम तुसाद का मोम संग्रहालय जिसमें भारत सहित विश्व के तमाम हस्तियों के मोम से निर्मित पुतले रखे हैं, टेम्स नदी का पुल, बिग बेन घड़ी, हाउस ऑफ़ कॉमन देख कर मन प्रफुल्लित हो गया। यह जानकर और भी मज़ा आया कि यहाँ भारतीय मूल के कई सांसद और मंत्री हैं। जिस देश ने सैकड़ों साल तक हमारे ऊपर शासन किया आज उसी देश में हम शासनकर्ता हैं।
लंदन के पश्चात् मुझे अपने गुरुजी से मिलने साउथहैम्पटन जाना था। गुरुजी चंदौली के और उनकी पत्नी छपरा के रहने वाले हैं। दो पुत्रों में बड़े का नाम लड्डू और छोटे का नाम गोपाल है। घर कि साज-सज्जा तो विलायती है, पर पूजाघर, वातावरण, संवाद, खानपान सब ठेठ भोजपुरी। बड़ा बेटा मेडिकल अंतिम वर्ष का छात्र तो छोटा म्यूज़िक (बाँसुरी वादन) में स्नातक का विद्यार्थी। बाँसुरी में स्नातक करने के प्रश्न पर गुरुजी ने बताया कि यहाँ बच्चों में मेडिकल या इंजीनियरिंग का कोई क्रेज़ नहीं है। सब अपनी पसंद की पढ़ाई करते हैं जैसे हिंदी, फ्रेंच, जर्मन, म्यूज़िक, डांस, फोटोग्राफी, होटल मैंनेजमेंट आदि। माँ-बाप कभी भी अपनी इच्छा बच्चों पर नहीं थोपते। वहीं मेरी मुलाक़ात एक मंदिर के पुजारी से हुई जो पहले आनंद, गुजरात में किसी विद्यालय में जीव विज्ञान के अध्यापक थे। हिंदी और संस्कृत के ज्ञान की वजह ही उनका यहाँ चयन हुआ। मंदिर में गणपति से लेकर तिरुपति बालाजी, शिव-पार्वती, सीता-राम, दुर्गा, काली सभी की प्रतिमा स्थापित है। पूजन, प्रवचन, कथा-पाठ सब हिंदी में आयोजित होता है ख़ासकर नयी पीढ़ी को ध्यान में रखकर ऐसा किया जाता है ताकि वे अपनी भाषा और संस्कृति से विमुख ना हो जाएँ।
भारत के अधिकांश प्रान्त, गुजरात और पंजाब ख़ासकर के लोग मिलजुल कर और प्रेम से रहते है जिसमेंं पाकिस्तानी हुए बांग्लादेशी भी शामिल हैं और हिंदी बोलते या बोलने की कोशिश करते हैं। मुझे वहाँ एक इंडिया गिफ़्ट हाउस नाम की एक दुकान मिली जिसका मालिक एक पाकिस्तानी था और धड़ल्ले से हिंदी में बोल रहा था। उसने गर्व के साथ कहा कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तान कि मूल ज़बान है, पाक या बांग्लादेश तो बाद में बना।
मेरी यात्रा का अगला पड़ाव वैंकुवर था। लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे से जब मैं रवाना हुआ उस वक़्त बारिश हो रही थी। अधेड़ उम्र कि एक कनेडियन एयर होस्टेस ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। वह जानना चाहती थी कि मैं शाकाहारी नाश्ता लूँगा या मांसाहारी। उस दिन शनिवार था। मेरे मुँह से अचानक निकला, मेरा व्रत है। जबतक मैं अपनी बात को दुबारा अँग्रेज़ी में कहता उसने तुरंत कहा, “आइ नो लिटिल हिंदी एंड आइ ऐम अवेयर ऑफ़ हिन्दू फ़ास्ट। लेट में सी माइ किचन व्हाट कैन आइ सर्व यू।” फिर उसने मुझे कुछ काले जामुन, अनानास के टुकड़े, एक पीस बर्फ़ी और एक जूस का पैकेट दिया जिसे ग्रहण कर मन आह्लादित हो गया।
वैंकुवर पहुँच कर शाम हो गयी। मुझे यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलम्बिया के हॉस्टल में रुकना था। रिसेप्शन पर औपचारिकता पूर्ण करके जब मैं कमरे में आया तो सामान रख कर बिना कपड़ा बदले सो गया। लगभग पाँच घंटे बाद मेरी नींद खुली, तब घड़ी में दस बज रहे थे। मगर आसमान से अभी भी दिन का ही अहसास हो रहा था। मैंने रिसेप्शन पर फ़ोन कर सूर्यास्त का समय पूछा तो पता चला वह 10:45 पर होगा। मेरे लिए यह एक नया अनुभव था।
सम्मलेन तो बहुत लाज़बाब था पर खाने की बहुत दिक़्क़त थी। पहला दिन तो 5 डॉलर में दो समोसे और कॉफ़ी में बीता। दूसरा दिन दो बिस्कुट और चाय पर। तीसरे दिन भूख ने बग़ावत कर दी। मेरे एक मित्र बन गए थे पाकिस्तान के डॉ. कबीर चीपा। ख़ूब हिंदी में बात करते। उन्होंने बताया कि बेसमेंट में भोजनालय है। हम बेताब वहाँ पहुँच गए। एक जापानी रेस्टोरेंट दिखा जहाँ खुले में एक बड़े से चौकोर तवे पर खाने कि चीज़ें बन रही थी। मैंने चावल-भाजी (राइस वेज) का ऑर्डर दिया तो चीपा भाई ने चिकेन बिरियानी का। शेफ जो जापानी था ने पूर्व के ऑर्डर के लिए आवाज़ लगाई, बीफ़ रेडी और उसके बाद पोर्क का नंबर था। हम दोनों यह सुनकर सन्न थे कि तभी हमारे ऑर्डर के डिलीवरी की भी आवाज़ गूँज उठी। हम सोच में थे कि करें तो क्या? एक तरफ़ बीफ़ दूसरी तरफ़ पोर्क।
एक ही तवे पर सब कुछ बन रहा था, धर्म भ्रष्ट होने में कोई कसर नहीं बाक़ी थी। दूसरी तरफ़ दो दिन कि भूख अलग चीत्कार कर रही थी। मन मसो कर हमने अपना ऑर्डर ले लिया और टेबल पर आ गए। हमारी एक दूसरे को दलील थी कि हम धर्म के हिसाब से प्रतिबंधित चीज़ तो खा नहीं रहे हैं, केवल उसके एक ही तवे पर बनने की बात है। ख़ुद ही संतुष्ट होकर जैसे ही हमने पहला निवाला मुँह में डाला, चीपा भाई को बड़े ज़ोर की उल्टी आयी। वह वाश बेसिन की ओर भागे। मेरा मूड भी किरकिरा हो गया। खाने की भरी प्लेट छोड़ कर हम उठ गए।
अगले दिन पता लगा कर डाउन टाउन में जाकर हमने 5 डॉलर में भर पेट भोजन किया। तब जाकर आत्मा को तृप्ति मिली। यहीं हमें पहली बार चालकविहीन ट्रेन का दीदार हुआ।
सम्मलेन समाप्त हो चुका था और मेरी अगली मंज़िल कैनेडा की राजधानी ओटावा थी। मेरे मित्र गाँधी मुझे लेने मॉनट्रीयाल एयरपोर्ट आये हुए थे जहाँ से सड़क मार्ग से ओटावा जाना था। मई के महीने में बसंत ऋतु का अहसास, शीतल पवन के झोंके और रास्ते के दोनों ओर ट्यूलीप के रंग-बिरंगे बग़ीचे तन-मन में एक अलग तरह की संवेदना का अनुभव करा रहे थे। विदेशों में जहाँ भी भारतीय मूल के लोग है उनमे सौहार्द और बंधुत्व की भावना बराबर रहती है। ग्रुप के सदस्य सप्ताहांत में किसी एक के यहाँ मिल कर मनोरंजन और खाने-पीने का लुत्फ़ उठाते है। अगर कोई देश से मेहमान आता है तो वह सादर आमंत्रित होता है। मैं भी एक गोष्ठी का अतिथि बना। एक साथ बीसों सवाल मेरे सामने परोस दिए गये। खेल, फ़िल्म, राजनीति, साहित्य सब के बारे में ताज़ा क्या है, कौतूहल का प्रश्न होता है। ठीक भी है, देश में क्या हो रहा है हम जैसे मेहमान अपडेट नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
जूस, ड्रिंक्स और स्नैक्स के साथ परिचय और फिर गोष्ठी, महिलाओं की अलग, पुरुषों की अलग। बच्चे पूर्व परिचित होने से खेलने में व्यस्त। मुझे यहाँ मिनी भारत का दर्शन हो रहा था। पटेल, सुब्रमणियम, शर्मा, दामले, गाँगुली, शेखावत, झा, बिष्ट सब शामिल थे। कोई डॉक्टर, कोई इंजीनियर, कोई आइटी कोई व्यापारी मगर सब की एक ही भावना, हिंदुस्तानी।
बातचीत की भाषा हिंदी भी थी और अँग्रेज़ी भी। अहिंदीभाषी टूटी-फूटी हिंदी या हिंदी अँग्रेज़ी के मिक्सचर का प्रयोग करते। बातचीत हिंदी ही से शुरू होती है। झा जी का कहना है कि साउथ वाले हिंदी का बेमतलब विरोध करते हैं जबकि हिंदी फ़िल्म और हिंदी गाने से कोई परहेज़ नहीं है। सुब्रमणियम राव हिंदी विरोध को सियासी चाल मानते हैं। उनका तर्क है कि साउथ के तमाम प्रोड्यूसर, कलाकार, गायक, म्यूज़िशियन हिंदी सिनेमा के कर्णधार रहे हैं। राजश्री प्रोडक्शन, बाला सुन्दरम, हरिहरन, रेखा, रहमान ने कभी हिंदी का विरोध किया? शर्माजी तो हिंदी के देशव्यापी प्रसार के लिए सिनेमा को अग्रणीय मानते हैं। शेखावत राजनीति को हिंदी के प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम कहते हैं। जिसे राजनीति में नेशनल लेवल पर आना है वो झख मारकर हिंदी बोलेगा। पटेल ने विषय को बदलते हुए शर्मा से पूछा कि क्या हिंदुस्तान से उनकी माँ आयी है, अगर हाँ तो उन्हें क्यों नहीं लाये? शर्मा का कहना था कि वोअँग्रेज़ी नहीं बोल पाती हैं। झा जी तुरंत बोल उठे कि यहाँ कौन सा अँग्रेज़ी का लेक्चर होता है और हम क्यों अँग्रेज़ी का लिहाज़ करें? क्या हम हिंदी नहीं जानते या नहीं बोल सकते हैं? क्या हिंदी अँग्रेज़ी कि दाई है? माँ-बाप सबके एक जैसे ही होते हैं, एकाध को छोड़ कर, जैसे गाँगुली के कर्नल पिता बिष्ट का तर्क था कि हम जैसे सॉफ़्टवेयर इंजीनियर को यहाँ तक पहुँचाने वाले माँ-बाप ही तो हैं। दामले ने बताया कि मंजू स्ट्रीट के अजय सिन्हा कि पत्नी के डिलीवरी के लिए इंडिया से उसकी माँ आयी हैं पर उसकी बीबी सबसे कहती है कि टिकट भेजकर गाँव से दाई को बुलाया है। पटेल ग़ुस्से में उसे गाली देने लगा। शर्म आती है इन भाँडों को माँ को माँ कहने में।
मैं सोच रहा था माई को दाई बताने वालों के बारे में। हिंदी का भी तो हम यही हाल करते हैं। बिनाका गीतमाला, विविध भारती, चित्रहार हमें पसंद थे। किशोर कुमार, लता, कविता कृष्णमूर्ति पसंद है। जय हो, जय हो भी पसंद है पर हाई सोसाइटी में हिंदी में कैसे बोलें! नाक पर मक्खी जो बैठ जाएगी। हिंदी में रो लेंगे, हिंदी में पूजा करेंगे पर हिंदी की पूजा नहीं कर सकते। मूँछ नीची हो जाएगी। बिलकुल वही हाल है, माई और दाई वाला।
मेरी यात्रा पूरी हो चुकी थी और मुझे अपने देश लौटना था पर माई को दाई कहने वाली बात मेरे दिमाग़ में अब भी गूँज रही थी। शायद ऐसी ही हीन भावना कुछ लोगों में हिंदी के प्रति है जिसकी परिमार्जन होना ज़रूरी है।