लोरी

सुनील गज्जाणी (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

जैस-जैसे रात गहराती उस बुड्ढे मरीज़ के खर्राटें मानो परवान पर होते। सर्द रातों में वे खर्राटे सन्नाटों को बींध-से रहे होते थे। वार्ड के अन्य मरीज़ रात को शुरू-शुरू में तो सिर्फ़ बड़बड़ाते थे जब वो बुड्ढा वार्ड में भर्ती हुआ था, मगर जैसे-जैसे कुछ दिन बीते तो उसे कोसने लगे उसके परिजनों से लड़ने पर उतारू हो जाते कि बुड्ढे के कारण हमारे नींद में ख़लल पैदा होता है। मगर परिजन बेबस थे, खर्राटे लेने से कौन किसे रोक सकता है। जबकि वो बुड्ढा कितने दिन का मेहमान है, पता नहीं। कभी उसकी तबीयत सही होती तो कभी बिगड़ जाती। बुड्ढे के सबसे पास का मरीज़ एक लड़की थी, जो कभी कुछ नहीं बोलती थी उसके खर्राटों के बारे में। वो केवल खर्राटें सुन अपनी आँखें बंद किये बुदबुदाती रहती और बुदबुदाती-बुदबुदाती जाने कब सो जाती पता नहीं। 

कुछ दिन बाद वो बुड्ढा चल बसा। उस रात वार्ड के मरीज़ों ने चैन की नींद ली, मगर वो लड़की उदास थी, उस रात देर तक जागे रही, परिजन भी “बेटी सो जाओ, बहुत रात हो चुकी है अब, सो जाओ ना” कह-कह कर थक गए थे। मगर लड़की टकटकी लगाए बुड्ढे वाले पलंग को देखती हुई बोली, “माँ, मेरे लिए वो खर्राटें किसी लोरी से कम नहीं थे, मैं उन खर्राटों को गिनते-गिनते कब नींद की आग़ोश में चली जाती, पता ही नहीं लगता था। माँ। अब फिर से नींद की वो दवाई दो ना जो बुड्ढे बाबा के आने से पहले डॉक्टर मुझे दिया करते थे, वर्ना इस ऑपरेशन के दर्द से आज नींद नहीं आएगी।”

माँ विस्मित हो निरुत्तर थी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें