आता है नज़र 

22-02-2014

आता है नज़र 

सुनील गज्जाणी

 

सँपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का, 
बतलाओ ज़रा कहाँ आता है नज़र? 
खेल बच्चों का सिमटा कमरों में अब, 
बालपन को लगी कैसी ये नज़र। 
 
वैदिक ज्ञान, पाटी तख़्ती, गुरु शिष्य अब, 
क़िस्सों में जाने सिमट गए इस क़द्र, 
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों में, 
फ़्रेम में टँगा बस आदमी आता है नज़र। 
 (धोरा=रेत का टीला) 
 
चाह कँगूरे की पहले होती अब क्यूँ, 
धैर्य, नींव का क़द बढ़ने तक हो ज़रा, 
बच्चा नाबालिग़ नहीं रहा इस युग में, 
बाल कथाएँ अब कहीं सुनता आया है नज़र? 
 
अपने ही विरुद्ध खड़े किए जा रहा, 
प्रश्न पे प्रश्न निरुत्तर जाने मैं क्यूँ, 
सोच कर मुस्कुरा देती उसकी ओर, 
सच्च, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नज़र। 
 
दिन बहुत गुज़रे शहर सूना सा लगे
चलो फिर कोई दफ़न मुद्दा उठाया जाए, 
तरसते दो वक़्त रोटी को वे अक़्सर
सेकते रोटियाँ उन पे कुर्सियाँ रोज़ आती है नज़र। 

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