भिखारी-दो छोटी कविताएँ
सुनील गज्जाणी
1
कचरे की ढेरी पे,
मानो सिंहासन पे हो बैठा,
जाने किस उधेड़-बुन में,
अपने गालों पे हाथ धरे,
कचरे में पड़े एक आइने में,
अक्स देखता अपना,
निहारता अपने को,
एक भिखारी।
2
सभ्य कॉलोनी के घरों का,
नकारा सामान,
कूड़ा करकट
कचरा पात्र में
कॉलोनी के बीचों-बीच भरा पड़ा
बीनता ढूँढ़ता,
जाने क्या
उस ढेर में
वो भिखारी।