कल देखा एक अत्याचार
जय प्रकाश साह ‘गुप्ता जी’
सोते कुत्ते को देख बच्चे चार,
करने लगे पत्थरो से वार
कल देखा एक अत्याचार।
कुत्ता अपनी नींद से जागा,
जान बचा इधर–उधर भागा,
जा छुपा वो कसाई की आड़,
कल देखा एक अत्याचार।
क़त्लेआम था मचा,
देख मुरगी-बकरियों की दशा,
हो गया वो लाचार,
कल देखा एक अत्याचार।
बचने की थी ऐसी धुन,
दिखा ना उसे फ़र्श पर ख़ून,
गिरकर पहुँचा हड्डियों के अम्बार,
कल देखा एक अत्याचार।
मन में चलता उन्माद
यमराज उसे आया याद,
देखा जब कसाई का हथियार,
कल देखा एक अत्याचार।
जैसे तैसे ख़ुद को सँभाला,
जान बचाने हर मार्ग खंगाला,
झटपट पहुँचा रास्ते के पार,
कल देखा एक अत्याचार।
जान बची तो लाखों पाये,
लौट के बुद्धू घर को आये,
अपनी दशा पर किया पुनर्विचार,
कल देखा एक अत्याचार।
अच्छे बुरे लोग सब में हैं होते,
फल वैसा जैसे है बोते,
दोष किसी को देना है बेकार,
कल देखा एक अत्याचार।
खाने को रोटी भी देते,
जान तो मेरी कभी नहीं लेते,
सिर्फ़ मारें पत्थर चार,
सह लूँगा इतना अत्याचार।