हिन्दी को समझे थे बाई
जयराम जयमाह और
पखवारा कबसे
हिन्दी दिवस मनाते बीते
भाषा नहीं
राष्ट्र की कोई
हाथ अभी रीते के रीते
गाल बजाते रहे अभी तक
जो भी सत्ता में आए हैं
सोचा नहीं भला हो कैसे
बस विज्ञापन में छाए हैं
लीपा-पोती
करते रहते
और लगाते रहे पलीते
भावनाएँ हों कितनी आहत
किन्तु न उनके मन में चाहत
साफ़ नियति है नहीं किसी की
कैसे मिल पाएगी राहत
प्रेमी हैं जो
निज भाषा के
वे नित घुट-घुट आँसू पीते
डूब रही है नदिया जल में
निर्णय सदा रहा है कल में
सिर्फ़ गिनाते रहे सफलता
जो न दिखीं हैं अब तक थल में
वे भी मुँह
मोड़े बैठे हैं
जो उसकी रोटी पे जीते
हिन्दी-हिन्दी कुछ दिन गाते
नित्य उसी की कथा सुनाते
माह बीतते ही सब उसको
एक वर्ष तक फिर बिसराते
पिण्ड छुड़ाके
तिड़ी हो गए
जैसे शहर से भागे चीते
साथ नहीं देता कोई भाई
फिर भी दुनिया भर में छाई
गिटपिट-गिरगिट बोलने वाले
हिन्दी को समझे थे बाई
मिर्ची लगती हो
लग जाए
शब्द हमारे होते तीते