घूम रहे थे बंदर चार . . . 

15-09-2024

घूम रहे थे बंदर चार . . . 

डॉ. उमेश चन्द्र सिरसवारी (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

नंदन वन बड़ा सुखी था, 
चारों ओर ख़ुशहाली थी। 
नज़र लगे न इस वन को, 
कोयल की रखवाली थी। 
 
छीनाझपटी और उछल कूद, 
करते घूम रहे थे बंदर चार। 
कोई बचाओ इनसे हमको, 
चारों ओर था हा-हाकार। 
 
भालू बिल्ली और कबूतर, 
हो गए थे बिल्कुल लाचार। 
गौरैया का टूटा घोंसला, 
चिड़िया के अंडे टूटे सात। 
 
चली लोमड़ी रपट लिखाने, 
पानी की गगरिया फोड़ी। 
समोसा, पिज़्ज़ा, बर्गर लाई, 
पूरी गठरिया लूटी। 
 
शेरखान तक बात गई तब, 
महापंचायत वहाँ बुलवाई। 
चारों बंदर लाचार खड़े थे, 
सबने कनपकड़ी करवाई। 
 
आगे से नहीं सताएँ किसी को, 
शपथ यही दिलवाई। 
सबक़ मिला बंदर चारों को, 
'उमेश' ने बात समझाई। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख
बाल साहित्य कविता
किशोर साहित्य कविता
पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें