घूम रहे थे बंदर चार . . .
डॉ. उमेश चन्द्र सिरसवारी
नंदन वन बड़ा सुखी था,
चारों ओर ख़ुशहाली थी।
नज़र लगे न इस वन को,
कोयल की रखवाली थी।
छीनाझपटी और उछल कूद,
करते घूम रहे थे बंदर चार।
कोई बचाओ इनसे हमको,
चारों ओर था हा-हाकार।
भालू बिल्ली और कबूतर,
हो गए थे बिल्कुल लाचार।
गौरैया का टूटा घोंसला,
चिड़िया के अंडे टूटे सात।
चली लोमड़ी रपट लिखाने,
पानी की गगरिया फोड़ी।
समोसा, पिज़्ज़ा, बर्गर लाई,
पूरी गठरिया लूटी।
शेरखान तक बात गई तब,
महापंचायत वहाँ बुलवाई।
चारों बंदर लाचार खड़े थे,
सबने कनपकड़ी करवाई।
आगे से नहीं सताएँ किसी को,
शपथ यही दिलवाई।
सबक़ मिला बंदर चारों को,
'उमेश' ने बात समझाई।