बुढ़ापा

01-09-2025

बुढ़ापा

मुनीष भाटिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

झुर्रियों में छुपी हैं कई अधूरी कहानियाँ, 
संघर्ष और त्याग की कई निशानियाँ। 
कल तक जो पले लाड़ले जिन सायों में 
वही बुज़ुर्ग आज लगते हैं बोझ हर दम? 
 
जो कल तक थे शान और मिसाल, 
आज बना हैं बोझ, कैसा ये विधान? 
क्या दोष है उस स्नेह भरी परवरिश का? 
या क़ुसूर है आज की ख़ुदगर्ज़ सोच का? 
 
जिन नन्हे जिस्मों को कभी देखा था नंगा, 
सर्द हवाओं में काँपते, धूप में जलते तन को। 
जिनके लिए बने थे बुज़ुर्ग दीवार और छाया, 
आज वही उड़ाते हैं हँसी, उनके पहनावे पर। 
 
सींचा था बचपन ख़ुद की सहूलियत में कटौती कर, 
नींदें बेच दीं जिसने बच्चों की ख़ातिर। 
आज वही आँखें देखती हैं तिरस्कार से, 
जैसे बड़ो के त्यागों की कोई क़ीमत ही नहीं। 
 
क्या ये समय की मार है या इंसान की भूल? 
दिल में उठते हैं सवाल, और आँखों में धूल। 
पर क्या कहें, यही शायद जीवन की रीत है, 
जहाँ अपनापन भी बस दिखावे की प्रीत है। 
 
जिस पिता ने कल तक कंधों पर बिठाया, 
हर मेले की रौनक़ दिखा, हर ख़्वाब सजाया। 
जिनकी मुस्कान से रौशन था हर आँगन, 
आज वही चेहरा बना उलझनों का बँधन। 
 
जिनके हाथों ने तुम्हें चलना सिखाया था, 
जो हर डर से पहले ख़ुद टकराया था। 
आज उनके काँपते क़दम करते हैं सवाल, 
क्या इस घर में है भी उसकी कोई औक़ात? 
 
बुढ़ापा सज़ा कोई नहीं, बस एक पड़ाव है, 
हर साँस में छुपा जीवन का सौम्य बहाव है। 
हर किसी को पहुँचना है इस मोड़ तक, 
फिर क्यों इस सच को भूल जाए ज़माना। 
 
जिन्होंने हर साँस में बच्चों को जिया, 
हर रात अपने बच्चों की ख़ातिर जगा, 
आज वही साँसें गिनते हैं चुपचाप, 
एकांत की गोद में खोए हर पल गुमनाम। 

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