अंतःपुर की व्यथा कथा

अंतःपुर की व्यथा कथा  (रचनाकार - अनिल कुमार पुरोहित)

युद्ध के पश्चात: दृश्य-2


कुन्ती:
 
पधारो भवभयभंजनहारी-
स्वागत आपका जो बनाया हमें विजयी
कुरुवीर लोट रहे कुरुक्षेत्र की भूमि पर।
जीत हमारी कर दी सुनिश्चित उस दिन
जब बन सारथी, डोर सँभाली।
हे गोविन्द, हे माधव, हे मुरलीधारी
जो प्रतीत था असंभव-सहज किया
हर अपमान का लिया प्रतिशोध
हर लिया कुरुक्षेत्र ने, हमारा सारा आक्रोश।
यह विजय नहीं हमारी, धरोहर है आपकी
यह ख़ुशी, यह आनंद-अनुग्रह आपका।
फिर भी अपनों का देख बिछोह
मन क्लांत हमारा।
कैसे रहें दूर-माया मोह भरा संसार
धिक्कारती, हमें ममता हमारी
हे प्रभु-शरणागत हम सब
कैसे सँभालें राज हस्तिनापुर का
किंकर्तव्यविमूढ़ है मति हमारी।
 
कृष्ण: 
 
हे माते कुन्ती
व्यर्थ अब यह सोच सबकी।
जिस समय से होकर गुज़रे हैं पांडुपुत्र
जिस राह पर चल पड़े थे कुरुपुत्र
यह महासमर तो था अनिवार्य।
हर भीष्म, द्रोण, कर्ण को होना था धराशायी
कर्तव्यच्युत हो जायें जब ऐसे युगदृष्टा
धर्म मार्ग पर पग डोलें, जब ऐसे गुरुओं के
राजनीति की ओट में खेलें कूटनीति
अपनों के स्वार्थ की ओट में रचाएँ षडयन्त्र
निमंत्रण दे महासमर को
धराशायी होंगे कुरुसमर।
देखी अभी करतूत भीम की
झलक दिखलायी दुर्योधन की पल में।
देख अभिमान भीम का
रोम-रोम भय से थर्राता।
एक पल में मस्तक बरबरीक के
रोष में किये टुकड़े हज़ार।
सिर्फ़ इतना ही कहा बरबरीक ने
इस युद्धभूमि में नहीं देखा कोई
योद्धा महान।
कालचक्र एक घूम रहा था
कर दिया कुरु सेना का संहार।
कोई पांडुपुत्र दिखा नहीं
जो कर रहा हो इस युद्ध में प्रहार।
अभिमानी भीम, सह ना सका-
किया गदा से एक प्रहार।
अशोभनीय बर्ताव भीम का
भविष्य दिखा रहा–पूर्ण अंधकार
कुरुवंशियों का नाश किया पांडुपुत्रों ने
कौन रोकेगा-गर बने दुराचारी पांडुपुत्र।
राजवासी हस्तिनापुर के कैसे रोकेंगे यह हाहाकार?
जीत के जश्न में मत भूलो लक्ष्य अपना
उत्तरदायित्व निभाना, अब संयम नियम से
नहीं प्रजा को भयाकुल बनाना।
एक दूसरे का बन सहारा,
अंकुश लगानी दिशाहीन शक्ति को
लक्ष्य नहीं प्रतिस्पर्धी बनना, न बनो प्रतिरोधी
गूँथ एक दूसरे से मज़बूत रहना
प्राणस्त्रोत बन, बनें सभी सुपथगामी।
 
कुन्ती:
 
जो सुना प्रभु, कानों विश्वास नहीं
नहीं देख सकती उद्दंड शक्ति भीम की।
क्यों प्रभु-शक्ति दे, हर लेते मति?
क्यों प्रभु भोगविलास में, कर देते हो दुःखी?
जब वर्तमान हम दुःखी
तो कैसे रह पाएँगे भविष्य में सुखी?
 
कृष्ण:
 
नहीं माते! मैं नहीं हरता किसी की मति
न मैं करता किसे सुखी, न करता किसे दुःखी
वक़्त के साथ जब बदल देता मापदण्ड
हर सीढ़ी चढ़, और चाहता मानव नये शिखर
इसी होड़ में, करता वर्तमान दुःखी
जिन विषयों को देख, पाकर होना चाहता सुखी
क्षणभंगुर वो सब, कैसे हो सकता पा उन्हें सुखी।
कर्मफल आस में, भूल जाता ध्येय अपना।
यह शरीर दिया नहीं भोगविलास के लिये
मनुष्यत्व के बाद देवत्व का स्थान
यह है परीक्षा, मनुष्य की देवत्व प्राप्ति की
मोह माया, काम, क्रोध अभिमान
गुज़रना पड़ेगा तुम्हें इन सब से
अग्नि परीक्षा देनी होगी तुम्हें।
जो गुज़र सकेगा ऐसे भवसागर से,
वही प्राप्त कर पायेगा देवत्व।
बंधनमुक्त होकर नहीं करना जीवन यापन,
कर्तव्यपरायण बन धर्म की रक्षा करो
धर्मपरायण बन भवसागर तरो।
स्वार्थी बन कोई नहीं हो सकता परमार्थी
जो दायित्व निभाना तुम्हें पाकर देवत्व
उसका देना होगा प्रमाण तुम्हें,
कर मानव जीवन सफल।
कितनी योनियों से गुज़र-
तुमने पाया यह शरीर
भोग विलास में डूब,
मत भूलो अपनी मंज़िल
जो पा सकते, धर यह मानव रूप
मत गँवाओ उसे, डूब इस भवसागर में।
छोटे-छोटे दुःखों में उलझ, मत होना दुःखी
अनदेखा मत करो, वो अनगिनत सुख की घड़ी।
हर पल जो साथ चलते, बन साया तुम्हारे,
बड़े सुख की चाह में, भूलो मत नन्हे लम्हे सुख के।
हर पल सँजोकर, पूरा करो ध्येय अपना।
देवत्व की ओर बढ़ो
मत गँवाओ अनमोल जीवन अपना।
जो घट गया कुरुक्षेत्र की धरती पर नहीं कोई अनजान।
मन तुम्हारा धरा कुरुक्षेत्र का
घट रहा हर क्षण संग्राम।
धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य
हर पल ले रहे, तुम्हारा इम्तिहान
मैं हर पल बनूँगा, सारथी तुम्हारा
डगमगाये न विश्वास, मुझमें तुम्हारा।
डोर इस चंचल मन की, थामें मैं
विजय पथ पर, ले चलूँगा रथ तुम्हारा।
अपने स्वार्थ पर, चलाने होंगे तीर तुम्हें
अपने विकारों को, करना होगा धराशायी
देनी होगी बलि, अपने अहं की
काट छिन्न-भिन्न, करना होगा मोह का जाल,
मैं तो सिर्फ़ बनूँगा–सारथी
पथ प्रदर्शक, मध्यस्थ
कर्म सारे, करने होंगे तुम्हें
यदि जीतना है कुरुक्षेत्र अपना।
लड़ना होगा विकारों से अपने
सारथी नहीं तुम, सिर्फ़ युद्धरत।
कर्तव्यनिष्ठ बनो तुम, धर्मरत रहो तुम
मत घबराओ, देख विकट समरांगण
ऐसे महासमर में रहो एकाग्रचित्त
विनाशकारी नहीं, तुम विकाशकारी
माया, मोह, अधर्म, कुकर्म का विनाश
होता सदैव कल्याणकारी।
रक्षक बनो धर्म के, कर पुण्य काज
भक्षक बनो अधर्म के, कर मान अभिमान परित्याग।
मनुष्य पहचाना जाता अपने कर्मों से
राजा की पहचान–होती नीति नियमों से।
कर्मच्युत मानव को फल मिलता अपने कर्मॊं का
नीतिहीन राजा का-करती बहिष्कार प्रजा,
कर घोर समर।
फूलों के धागे में पिरो, बना लेते माला
फूल वही, ख़ुशबू वही-पर प्रयोग अलग
प्रयोजन अलग, सार्थकता अलग, रंग-रूप अलग
उसी तरह मानव धर्म पिरो–
माला में बनते समाज के नियम
नियमों की माला-सजाती, सँवारती
समाज देश की नीतियाँ
इन्हीं सब से बँधा–राज्यभार चलाता शासक
स्वधर्म से ऊँचा समाज धर्म
और सर्वोपरि राजधर्म, जो टिका राजनीति पर
बलि चढ़ जाते राजवासी, यदि दूषित हो राजनीति।
न्योछावर हो जाते ज्ञानी, वीर, धर्मी, कुशली, विवेकी
जब घिर षडयन्त्रियों से होती राजनीति।
नीतियाँ तय होतीं, रख राजहित सर्वोपरि
जनकल्याण से होता सारा राज्य सुखी।
नहीं होती तय नीतियाँ,
रख स्वार्थ एक समुदाय का सर्वोपरि।
बीज बोती हिंसा, असहिष्णुता, विद्रोह का
कमज़ोर करती राजबल,
अराजकता में लपेटती राज्य को।
ऐसी नीतियाँ जब ढालती मन, कर्म वचन राजा के
तारतम्य इन तीनों में, सुदृढ़ करता राजपाट को।
दुष्ट, स्वार्थी, षडयंत्रकारी, शत्रु, परे रहते ऐसे राज से।
प्रजा ख़ुशहाल, राजकोष भरपूर रहता सदा ऐसे राज में।
जिस दौर से होकर गुज़रे पितामह भीष्म
कल्पना नहीं की अत्याचार-दुराचारी कुरुवंशियों की।
जन्मांध धृतराष्ट्र, मदांध दुर्योधन, कामांध दुःशासन
उस पर धर्मांध पांडुपुत्र–शिकार होते रहे शकुनि का
सक्षम की अक्षमता, होती बड़ी मर्मांतक
देख दुराचार चुप रहना महारथी का-
होता बड़ा मर्मभेदी।
जो भी बीत रही पांडुपुत्रों पर-
सारे अत्याचार, सारे अन्याय
घाव गहरे लगते रहे सीने पर-
बार-बार सहते आघात
तीर बन रणभूमि में भेद गये सारा शरीर
उनकी पीड़ा, रुधिर बन झर गयी,
जब किया, प्राणों का त्याग?
अब कोई नहीं समक्ष तुम्हारे
धर्म, न्याय, प्रेम, विश्वास के स्तंभों पर
भोगो हस्तिनापुर का राज।
धरोहर पितामह की, रखना मान तुम्हें-
बलिदान पितामह का खोना नहीं तुम्हें।
अभेद्य हस्तिनापुर का स्वप्न, अदृश्य पाषाण हाथों में
कैसे सौंप देते पितामह?
सबसे पहले दी अपनी बलि
जब देखा पूरा होता सपना अपना।

 

 द्रौपदी:
 
हे सखा कृष्ण! 
इस घोर समर में कैसे रहे-आप मध्यस्थ? 
जिन मूल्यों की रक्षा करने
किया अपनों का बलिदान। 
उन्हीं मूल्यों को रख ताकपर
कैसे करेंगे–प्रारंभ अपना अभियान? 
धर्मक्षेत्र की आड़ ले, सबने किया अधर्म, 
जीत की लालसा में
अब हो गया इतिहास कलंक। 
 
कृष्ण:
 
सुनो कृष्णे! यह अब भी ठहरा धर्मक्षेत्र
जो चल रहे थे, अस्त्र महासमर में
अहं ज्ञान हो रहा भस्म। 
लोट भूमि में प्राण तजे महारथी
नहीं हो रहा कोई अधर्म। 
ईर्ष्या, द्वेष, बैर, शत्रुता-
युद्धभूमि पर, पहुँचते अपने उत्कर्ष। 
अधर्म से कभी नहीं, लड़ता कोई धर्म
न पाप से होता, कभी पुण्य का अंत
अंधकार मिटा नहीं सकता, स्रोत प्रकाश का
मृत्यु मुक्त नहीं कर सकती-किसी भी प्राण का। 
शक्तिस्रोत हैं यह सब, बदलते रहते रूप अपना। 
कोई किसी का नहीं बैरी, न कोई किसी से सर्वोपरि। 
युग बदलते ही बदल जाते धर्म-अधर्म के मापदंड
समय की चाल पर थिरकते रहते। 
कोसते क्यों तुम ख़ुद को-बन कर दुःखी? 
मन बदलते ही, बदल जाता मंज़र
पर कहाँ, कब कुछ बदलता-
सब कुछ देख मन डोलता। 
जो वेदना देख रहा, यह शिविर
जो लहर छा रही, आप सबके चेहरों पर
देखी मैंने कुरुक्षेत्र के महासमर में। 
चल रहे थे, तीर महारथी भीष्म के
फूल से बरस रहे थे पांडुपुत्रों पर
जयजयकार कर रहे जब उठाया यह क़दम। 
मैंने देखी भीष्म की वो शिकन
जब प्रतिज्ञा मेरी तोड़ने, किया मुझे विवश
रथचक्र उठा लिया मैंने, ठहर थम गया समय। 
चाहते भीष्म ऐसा होना, समझ आया उस पल। 
यह था भीष्म का महासमर, उन्हीं का था संदेश
प्रभु अब तो उठाओ अस्त्र, 
मत रहो मध्यस्थ। 
वेदना भीष्म की, नहीं सह सकता कोई
उनकी चुप्पी, उनकी भक्ति हस्तिनापुर की
विरले ही समझ सकते, नहीं समझ सकता कोई। 
बग़िया हस्तिनापुर की उजड़ रही
घुट-घुट जी रहे हस्तिनापुरवासी
निरुपाय भीष्म सब देख सह रहे
चालें शकुनि की, करतूत दुर्योधन मूढ़मति की। 
चाहते भीष्म, पल में पलट सकते पासा
पर वह न था नीतिसम्मत, न ही माँग समय की
फिर कोई नया शकुनि, चला षडयंत्र की चालें
सँवारता, रंगता किसी और दुर्योधन को। 
महासमर ऐसा रचा, देख समय भी थर्रा गया
दस दिनों तक अकेले, चलाया महासंग्राम
साथ अपनी ही मृत्यु का, दिखा कारण
किया उन्होंने विश्राम। 
अपनों के हाथों, अपनों की देना बलि
होता बड़ा विकट, नहीं अति सहज काम। 
 
कुन्ती:
 
प्रभु-प्रभु! क्या सब कह डाला आपने
वेदना पितामह की, क्या सिर्फ़ सही उन्होंने? 
पांडुपुत्रों ने सही, हस्तिनापुर ने सही, 
धृतराष्ट्र, गाँधारी ने सही
अकर्मण्यक, अनदेखी, जड़ता-ज्ञानी ध्यानियों की
सहता सारा समाज। 
युगजीवी होते नहीं ऐसे-
जिनके कंधों पर चलते युग, 
वही हो जाएँ शिथिल अगर
ढह जाता सब कुछ। 
कहिए प्रभु–आप तो थे मध्यस्थ
देख सकते थे सब कुछ-करा सकते थे बहुत कुछ
फिर भी बने रही मध्यस्थ। 
सवाल कई पूछेगा-आने वाला युग
व्यर्थ बली चढ़े रथी महारथी
और–तर्क-कुतर्क में उलझ
पेंगे बढ़ाता रहा अधर्म। 
आने वाला समय–कहाँ देखेगा ऐसे महारथी। 
किसका पूर्वाभास दिया आपने, 
खेला नहीं, ऐसे ही ऐसा खेल। 
गूढ़ प्रयोजन आपका-नहीं देख पा रहे हम
कुछ अंदेशा तो मिले
बढ़ा सकें हिम्मत से-
ये अपने डगमगाते क़दम। 

 

 कृष्ण:
 
हे प्रिय माते! 
अब मत करो कोई दोषारोप
जो भी सोच रही तुम–प्रतीत हो रहा तुम्हें
आभास आने वाले युग का। 
फिर से दोहराता मैं, बार-बार
कुछ नहीं ग़लत, कुछ नहीं सही
यह जो कह रहे, पाप-पुण्य, धर्म–अधर्म
सब कुछ मुझसे जन्म लेते
न कोई प्रिय, न अप्रिय
मैं स्थितप्रज्ञ, तुम सब विचलित। 
जिसे तुम कह रहे-अधर्म, अन्याय, पाप
एक युग दे जा रहा इन्हें
निर्भय करेंगे राज-
प्रजा रहेगी मायामोह में ओतप्रोत
अर्थ के होंगे अनर्थ, पर नहीं कोई रोष। 
सब ढूंढेंगे स्वार्थ में परमार्थ। 
नियम बनेंगे शिखंडियों से, 
वार करेंगे छिप कर अर्जुन-पितामह पर, 
सारी व्यवस्था नाचेगी शकुनि की चालों पर। 
जिसे तुम समझती अराजकता-
राज करेगी जनमानस पर। 
ज्ञानियों के ज्ञान, दूरदृष्टाओं की दृष्टि
सीमित रह घुट-घुट
सहेंगे वेदना भीष्म की। 
व्यवस्थाओं की अदला-बदली, 
करेगी प्रजा देकर अपनी बलि। 
निगल जाएँगे
नए संपोले नयी व्यवस्थाओं को, 
भूलेंगे अपनों की बलि। 
नए संपोले नयी व्यवस्थाओं को, 
निगल जायेंगे, भूलेंगे अपनों की बलि। 
पर सब मगन रहेंगे–नशे में अपने
मायामोह के पाश में-कुछ ना होगा एहसास
आसक्त हो अर्थ के–भोंगेंगे चरमसुख। 
जिसे तुम कह रही आज सत-असत, पाप–पुण्य
परिभाषा इनकी बदल जायेगी, आ रहा ऐसा राज। 
इतिहास पर अपने गर्व करेंगे-
सीखना उससे कुछ नहीं
देख दूसरों को सुखी-प्रपंच रचेंगी और रहेंगे दुःखी। 
दुर्योधन, दुःशासन उत्पात करेंगे
दे धृतराष्ट्रों को राज। 
शकुनि अपने बुनेंगे ताने बाने
जकड़ शिथिल हो जायेंगे पितामह
पर कहाँ दे सकेंगे अपनी बलि। 
जो घाव दर्द नहीं देता-होता बड़ा घातक
ऐसे ज़ख़्म अपने कुरेद-कुरेद जीयेगा आने वाला युग। 
सभी आततायी, चलेंगे भेड़ चाल–कुपथ
अधर्म को उढ़ा धर्म का लिबास-उलझेंगे कर कुतर्क। 
आसक्त बन-स्वार्थ का, ढोंग करेंगे परमार्थी
समाजसेवी का रूप सजा-फिरेंगे
चहुँओर नरभक्षी। 
अंधकार में गुज़रेगा जीवन, 
बंद हो जाएँगी आँखें, देख ज्ञान की किरण। 
यह कुरुक्षेत्र-तो कुछ भी नहीं
यह षड्यंत्र-तो सिर्फ़ खेला मात्र
यह चीरहरण–तो लगेगा दिखावा
यह लाक्षागृह की आग–प्रतीत होगी बर्फ़ीली। 
होंगे रोज़ नए षडयंत्र, हिंसा की आँच में
खींचेंगे चीर धर्म का, उसूलों की वेदी पर
रचेंगे कुरुक्षेत्र, नवयुग निर्माण को चढ़ाकर सूली
उठेंगी लपटें लाक्षागृह की
तिलांजलि दे व्यवस्थाओं की। 
झूठे मापदंडों पर नाप प्रगति अपनी
दुंदुभी बजा विजय नाद करेंगे। 
सारथी बन जो गुज़रा हूँ, इस कुरुक्षेत्र से
अंदेशा दिये जा रहा आने वाले तूफ़ान का
सुन रहा निनाद, अर्धसत्य का
नहीं सुनेगा सत्य, असह्य होगा प्रतीत। 
समाज रचा जायेगा ऐसी ही विविधताओं पर
विधाएँ होगी, न होगा संतोषी कोई
सुनहरे कल की होड़ में, उजाड़ेंगे वर्त्तमान सभी। 
संतोष में डूब रहेंगे मगन
तारतम्यता मन, कर्म, वचनों की होगी छिन्न-भिन्न। 
दोषी होंगे ख़ुद, पर दोषारोप में लिप्त रहेंगे प्रमादी। 
कल्पना शक्ति होगी चरम सीमा पर, 
फिर भी कलपते रहेंगे कल्पना में-न लगेगा हाथ कुछ
सुलझाएँगे एक-उलझाएँगे दस
इसी उलझ-सुलझ में रहेंगे व्यस्त। 
लकीर के फ़क़ीर बन, औचित्य ठहरायेंगे चीरहरण
न्यायसंगत बताएँगे अन्याय अपने
समाज, परिवार, रिश्ते-सिर्फ़ रेत के महल
सजा, सँवार-दंभ भरेंगे अपनी संस्कृति का। 
सत्य को कर अनदेखा, असत्य पर पग धरेंगे
जो चिरंतन–तजेंगे, क्षणभंगुर को जोहेंगे। 
ऐसा युग गुज़रेगा इस धरा से
सो जायेगी मानवता-ओढ़ तमस की चादर
ढोंगी, प्रपंची-रचेंगे इतिहास अपना। 
यह युग होगा-कलि का युग
अलि-अलि में, होगी कलि। 
धर्म, सत्य, पुण्य-थक चूर
लेंगे नींद-प्रेम की छाँव तले। 
राग, द्वेष, जलन, हिंसा
रग-रग में बस, करेंगे राज अपना। 
विभिन्न अंगों में सजा रहूँगा मैं
देख मुझे विचलित होंगे। 
मेरे अपनेपन को भूल-
बारबार वार करेंगे-मदमस्त, उन्मत्त। 
जिसे तुम कह रही अधर्म, पाप, असत्य
वही बनेंगे मार्गदर्शक-ऐसा होगा भयावह युग। 
इन सबका खेल रचने में
पूरा समर्पित होगा वह युग। 
जब थक चूर हो जायेंगे
समेट लूँगा-लीन कर लूँगा
फिर जाग उठेंगे-सत्य, धर्म, पुण्य
ऐसा ही रचा होता युगचक्र। 
धर्म ही कर्म की पहचान कराता
कर्म ही धर्म की लाज रखता। 
कर्म में नीयत, होती अति महान
यही नीयत तय करती, नियति कर्म की। 
यदि आग लगी साड़ी का चीरहरण करता-
बचाता प्राण द्रौपदी के, 
वही दुर्योधन महान कहलाता। 
पर कामुक नीयत, कुरु महारथी-
किये अनगिनत कुकर्म, 
उसी नीयत ने दिखाये हम सबको ये दुर्दिन। 
हम सब शाख़, फूल-पत्ते मानवता के
और फूलेंगे, फलेंगे, फैलाएँगे शाख़ अपनी
नए धर्म, नए नियम बना
मज़बूत करेंगे यह वृक्ष अपना। 
सब जुड़े एक से-नहीं कोई भिन्न, 
पवन नियम की, पानी प्रेम का, 
तपन सहिष्णुता की, जड़ें धर्म की। 
इनसे बनाएँगे-अजर, अमर
रखेंगे चिरहरित यह कल्पवृक्ष। 
तुम व्यर्थ चिंतित-आनेवाले युग से
मत डगमगाओ क़दम अपने
जो वर्तमान सौंप रहा-शिरोधार्य करो
कर्मी कुशल बन, सँभालो राज्य अपना। 
 
कुन्ती:
 
अवश्य प्रभु! 
जो आपकी इच्छा–हमें शिरोधार्य। 
जो आपकी कृपा–हम शरणागत। 
जो आपकी शक्ति-न्योछावर करें यह नभ मंडल। 
शान्ति दें, संतोष दें; हे कृपानिधान
अब जो सोचेंगे, कहेंगे, करेंगे
आशीर्वाद आपका निधान। 

<< पीछे : युद्ध के पश्चात: दृश्य-1 समाप्त