अंतःपुर की व्यथा कथा (रचनाकार - अनिल कुमार पुरोहित)
दो शब्द
भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान अतुलनीय है। कोई भी धर्म, क्षेत्र, कर्म, राजनीति, समाज नारी जाति से अछूता नहीं। महाभारत जैसे महाकाव्य में नारी ने अपनी भूमिका बख़ूबी निभाई। जो भूमिका नारी जाति ने द्रौपदी, गांधारी, कुंति, माद्री, सत्यवती बनकर निभाई वह शायद ही किसी और काव्य में मिले। महाभारत भारतीय संस्कृति के पटल पर ऐसा काव्य रचा गया जो अब तक मनीषियों, बुद्धिजीवियों को पग पग पर चुनौती दे रहा। मैं ख़ुद को इस महाकाव्य का ज्ञाता नहीं कह सकता। बचपन से जो कहानियाँ माँ से सुनीं, दिल को भा गयीं। पढ़ने को उत्सुक हुआ तो कुछ समझ में आया तो कुछ नहीं। कुछ ज्ञान पिता जी से मिला। अंधे की तरह हाथी की पहचान में जुट गया। पर ओर छोर का पता लगाना मुश्किल था। जो महसूस हुआ, दिल को कचोटता गया। नारी उत्पीड़न की चरम सीमा मन को बेचैन करती रही। क्या सचमुच इतनी असहाय थी नारी उस युग में-यह सोच बार बार बेचैन हो जाता। इतनी पढ़ी लिखी, गुणी संस्कारी और इतनी लाचार! कहाँ कमी रह गयी? उस समय के ज्ञानी, विद्वत ख़ामोशी से देखते रहे। शायद ही ऐसा कोई युग हो जिसमें एक साथ भीष्म, द्रोण, विदुर, धृतराष्ट्र, अर्जुन, भीम, कृपाचार्य जैसे महारथी, दूरदर्शी, धर्मावलंबी, मनीषीयों का अवतरण हो। सर्वोपरि श्रीकृष्ण स्वयं सारथी बन जिस युग के चालक हों उस युग का अंत क्या महाभारत हो सकता है? इस प्रश्न का जवाब पाना मेरे लिए सम्भव नहीं। महाभारत का महायुद्ध क्या इतने महारथियों के कारण हुआ या फिर इतने महारथियों के टकराव से यह महायुद्ध-इसको कह पाना भी मेरे लिए सम्भव नहीं। पर इतना अवश्य अनुभव हो रहा था कि महाभारत का महायुद्ध, गीताज्ञान के लिए नहीं हुआ। इस महायुद्ध का परिणाम भयावह था। युद्ध कोई भी हो, भले ही पत्थर-भाले से लड़ा जाए या तोप, बन्दूक, अणुबम से लड़ा जाय-परिणाम भयावह ही होता है। सारा समाज थर्रा जाता है भय की लहरें सदियों तक तैरती रहती हैं। शायद यही लहरें आने वाली युगों को दुष्कर्मों के परिणाम से अवगत कराती हैं। सचेत कराती हैं-समाज में रहने वालों को असत्य, अधर्म, षडयंत्र करने के नतीजों से।
'अन्तःपुर की व्यथा कथा' इसी असमंजस की उड़ान है। महायुद्ध द्वार पर है। भीष्म, विदुर जैसे ज्ञानी मौन धारण कर नियति के पाश में जकड़े जा चुके हैं। कोई पितृमोह में अंधा है तो, कोई बदले की भावनाओं से ओतप्रोत है और महासंग्राम की तैयारी में जुटा हुआ।
धर्म, सत्य, प्रेम की आवाज़ दब चुकी है। विचलित हैं द्रौपदी, कुंती, गांधारी-सहा जिन्होंने पल पल राजमहल का दर्प। कुचली गयी अस्मिता-चाहे कुरुसभा हो या लाक्षागृह या जूए की बाज़ी। अहं की ढाल बना उसे विजय का कफ़न उढ़ा दिया गया। अपनी अपनी मतिहीनता का भयावह परिणाम अब दोनों ही पक्ष नहीं देख पा रहे। भीष्म जैसे सक्षम दृष्टा कर्तव्यच्युत हो चुके हैं। सारा हस्तिनापुर शकुनि की विकृत मानसिकता का शिकार होने जा रहा है और मूक वधिर हो देख रही सब भीष्म की किंकर्तव्यविमूढ़ता! जो शपथ ली थी राजसिंहासन रक्षा की, चूक रहे हैं कर्तव्यपरायण भीष्म। केवल वही एक थे उस घड़ी जो तोड़ सकते थे शकुनि, दुर्योधन, दुशाशन का कुचक्र। यही शिथिलता बेचैन कर रही द्रौपदी को। एक और प्रयास करना चाहती-शान्ति का, प्रेम का, मानव मूल्यों का।
युद्ध में होते हैं अपने हताहत। अपनों को वह खोना नहीं जानता, जिसने अपनों का किया सृजन। मृत्यु है अवश्यंभावी-नहीं अनभिज्ञ द्रौपदी, कुंती या गांधारी। पर आत्मघाती मृत्यु की नहीं इन्हें अभिलाषा। ऐसी मृत्यु होती लांछनीय, शोकपूर्ण और हृदयविदारक। दुर्योधन पूरी तरह से शकुनि के षडयंत्र में फँस, अपने दंभ की दुन्दुभी बजा रहा। हड़पी हुई ज़मीन का बँटवारा, हडपने वाले से मुश्किल है। मनः स्थिति दुर्योधन की व्याकुल कर रही द्रौपदी के मन को। इसका दुष्कर परिणाम द्रौपदी ही नहीं, कुंती एवं गांधारी जान चुकी हैं। हर राजा शक्तिशाली होना चाहता है। शक्तिशाली पड़ोसी राज्य से प्रतिस्पर्धा अविवेकी राजा करता है। ऐसे पड़ोसी से मित्रता कर लेना दोनों राष्ट्रों की शक्ति को बढ़ाता है। उस युग में ऐसे राष्ट्रों से सम्बन्ध जोड़ने के लिए कोई राजा संधि करता है तो कोई अपनी बेटी ब्याहता है। जब अपने ही पड़ोसी सम्बन्धी हों तो प्रतिस्पर्धा का सवाल ही नहीं उठता। अपनों से बल प्रदर्शन कर कोई बलशाली नहीं कहलाता वरन् अपने बल का क्षय करता है। इस तरह का अपनों से बैर शत्रुओं का बलवर्द्धन करता है। यह द्रौपदी जानती है, पर दुर्योधन अनभिज्ञ रहा। श्रीकृष्ण ने शान्ति प्रस्ताव के बीच इसी का उल्लेख है मेरी इस कविता “अन्तःपुर की व्यथा कथा” में। द्रौपदी विचलित होकर गांधारी के समक्ष अपनी व्यथा सुनाई। गांधारी ने अपने मन के कपाट द्रौपदी के समक्ष खोले। गांधारी ने सांत्वना दी द्रौपदी को एवं समझाया नियति की गति को। यदि युद्ध नहीं होगा तो एक और इन्द्रप्रस्थ दोहराया जाएगा। क्योंकि दोनों छोर सोचने में अभी तक बदलाव नहीं हुआ। जो द्रौपदी पर बीती, उससे अछूती नहीं गांधारी। द्रौपदी से ज़्यादा पीड़ा भोगी है गांधारी ने। सब कुछ देखा सुना गांधारी ने; अब और नहीं। शान्ति से प्रकृति नहीं बदलने वाली षड्यंत्रकारियों की। शायद युद्ध ही कोई परिणाम निकाले। यही सब सोच कर गांधारी ने मन को धीरज दे रखा है। श्रीकृष्ण नहीं चाहते युद्ध। शान्ति प्रस्ताव की पूर्ण सफलता के लिए द्रौपदी और कुंती की सहमति अत्यावाश्यक है। इसलिए कुंती और द्रौपदी को कृष्ण अपनी भूमिका से अवगत करा रहे हैं। इनकी अनुमति पाकर प्रस्थान करते श्रीकृष्ण हस्तिनापुर को।
जो सब घटा, महाभारत में सबको ज्ञात है। मेरा प्रयास काल्पनिक है, जो सब मेरे आसपास घट रहा है, उससे प्रभावित होकर मैंने अपनी भावनाओं को रूपांतरित किया। इस सफ़र ने मुझे काफ़ी विचलित किया। जब भी सोचता, हस्तिनापुर का चातक प्यासा नज़र आता। काफ़ी निहोरा चातक ने शायद बादल भीष्म के बरसें। मेरे अनुमान से महाभारत के सारे पात्रों में भीष्म ही एक थे जो शकुनि की कुटिल चाल तोड़ सकते थे। वे ही एक महारथी थे जो भविष्यद्रष्टा थे। शकुनि के क़दम हस्तिनापुर में पड़ते ही भीष्म जान चुके थे कि अब हस्तिनापुर विनाश के कगार पर है। इतने ज्ञानी, गुणी, बली भीष्म का सारे प्रकरण में मौनद्रष्टा होकर निहारना मुझे काफ़ी खला। पर भीष्म के इस रुख़ ने मुझे सबक़ दिया कि जब-जब समर्थी ज्ञानी गुणी चुप हो जाते हैं, तब जान लो समय विनाश की ओर लुढ़कने लगा है। यही महाभारत में घटा, यही अब घट रहा है। केवल पात्र बदल चुके हैं, बस समय की चाल देखना बाक़ी रहा। शकुनि अपनी चालें रहे हैं, दुर्योधन राजपाट के नाम पर षडयंत्रकारियों की चापलूसी में जुटे हुए हैं। शायद मेरी कविता भीष्म द्रोण जैसे महारथियों को अपनी शक्ति का अहसास दिलाये और व कर्तव्यमुखी बन षडयंत्रकारियों का पर्दाफ़ाश करें। संकीर्ण दृष्टि राजनेता जनहित को सर्वोपरि रख कालचक्र का रुख़ मोड़े। कोई युग नहीं चाहता महाविनाशक युद्ध, पर यदि समाज में रहने वालों का व्यवहार ना बदला तो इतिहास दोहराने में देर नहीं। जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण युद्ध की भयावहता को नहीं टाल सके तो . . . छोटी छोटी बातों को तूल देते जा रहे हैं, परिणाम महायुद्ध ही होगा-यह बात ना ही कुरुवंशी या पांडुवंशी समझ पाए; ना ही हम समझ रहे हैं। द्रौपदी, कुंती, गांधारी बन के रह गयी हैं-सिर्फ़ नेपथ्य में कोलाहल। इनके मर्म को ना तब जाना ना अब। इसका भयावह परिणाम जानकर भी हम सब अनभिज्ञ बने अपने स्वार्थ में डूबे अंधों की तरह भेड़ चाल में अपने ही विनाश की ओर प्रस्थान कर चुके हैं। चुनौती दे रहे हैं श्रीकृष्ण, विदुर, भीष्म, द्रोण जैसे महारथियों को-रोक सको तो रोक लो। पर क्यों रोकें? सड़ी-गली परम्पराएँ एवं मानसिकता के शिकार समाज का इलाज शायद महायुद्ध ही हो। अब तक सब हैं अर्ध विकसित, शायद एक युग और लगे हमें अपने आप से ऊपर उठने में।
काग़ज़ी फूल देख मचल उठते हैं, मृगतृष्णा देख चल पड़ते हैं प्यास बुझाने। हमें शर्मिन्दगी होती है अपने ही इतिहास, अपनी ही सभ्यता पर और विदेशी धुन का नगाड़ा बजाने से बाज़ नहीं आते। भूल चुके हैं ’वसुधैव कुटुम्बक” का मतलब। खोखली बातों पर दंभ भर महान बनने का स्वाँग रचा रहे। कोई भी अंदेशा लगा सकता है-इनका परिणाम।
मेरे इस प्रयास में मेरी पत्नी रीनू का सहयोग एक सशक्त आलोचक का रहा। नारी हृदय की विवशता-एक नारी ही पहचान सकती है। जहाँ कहीं भी मेरी कविता में अतिशयोक्ति नज़र आयी, उसे सरल बनाने में रीनू ने बड़ी सहायता की। इस कविता को सशक्त बना कर पाठ योग्य करने में मेरे पिताजी डॉ। शंकरलाल पुरोहित की भूमिका अवर्णनीय है। हिन्दी के विद्वान होने के साथ साथ उनका ज्ञान महाभारत में अति गहरा है। जहाँ कहीं कविता अपनी लीक से हटी देखी, उन्होंने मुझे मेरी त्रुटियों से अवगत कराया। कभी-कभी मेरी कविता की जटिलता देख मैं जाने कितनी बार हतोत्साह हुआ। कई बार दिल में आया कि मेरी कविता गतिहीन हो एक ही धुरी पर घूम रही है। आगे बढ़ने का मार्ग नहीं मिल रहा। मेरी इस पीड़ा को मेरी माँ ने बड़ी जल्दी समझ लिया। उन्हीं का निरंतर प्रोत्साहन था जो मुझे मेरी कविता को इस मुक़ाम तक पहुँचाया।
मैं अपने परिवार के तीन स्तंभों को आभार प्रगट कर अपने स्वार्थ का परिचय नहीं करना चाहता। इस कविता के हर पग में इन तीनों का अतुलनीय साथ रहा। इन्हीं तीन स्तंभों पर मेरी कविता टिकी हुई है।
अंत में मेरा आग्रह है पाठकों से कि कविता पढ़ें और आनंद उठायें। आलाचकों की अति आवश्यकता रहेगी। इसलिए अपनी प्रतिक्रिया निःस्संदेह pakere@gmail.com पर भेजिए। कभी-कभी तुलसीदास जी के ये शब्द सुनकर लगता है कि तुलसीदास जी अँगरेज़ी के बड़े विद्वान् रहे होंगे। वरन् Near से 'नियरे' शब्द कहाँ से लाते। ख़ैर यह मसला बुद्धिजीवी ही तय कर सकते है। मैं तो कहता हूँ:
“सर्वे भवन्तु सुखिन, सर्वे सन्तु निरामया।”
—अनिल पुरोहित
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