अधूरा स्वप्न
अनिल कुमार पुरोहित
एक अधूरा स्वप्न
हो तुम।
साथ साथ मेरे
फिर भी
रोम रोम मेरे
सिहर रहे।
मैं जहाँ भी रहूँ-
जो भी करूँ
रहते मेरे संग
हो तुम।
अभी अभी जो
छू कर गयी
अभी अभी जो
छल कर गयी
नित नए रंगों में
ढल आते-जाते
पल पल नूतन
स्पर्श हो तुम।
कोई मेरे आगे
कोई मेरे पीछे
भीड़ में मैं,
मुझमें भीड़
कोई कहता कुछ,
कोई सुनता कुछ
मन का मेरे शांत
कोलाहल हो तुम।
मैं तुमसे अछूता,
ना तुम मुझसे
परे परे रहकर भी,
एक दूसरे को निहोराते
सब कुछ सँजोया
मेरा-बिखर जाता
दर्पण में छिपा,
एहसास मेरा
हो तुम।
दूरियाँ समय की,
परे नहीं कर सकती
मन से।
रोशनी सूरज की
छिप बदलियों के ओट,
दहकती नहीं
बदन के साए
पगडंडियों के
मुड़ने से ख़त्म
नहीं होते रास्ते
टूटा शीशा नहीं,
सिर्फ़ बिखरा विश्वास
हो तुम।