अंतःपुर की व्यथा कथा

अंतःपुर की व्यथा कथा  (रचनाकार - अनिल कुमार पुरोहित)

दृश्य - 1

 

द्रौपदी:


बड़ी ही दुर्द्धष स्थिति
परिणाम सोच जी कचोटता
सूख जाते अधर, बार-बार विचलित मन
पर कौन सुने-आर्त्तनाद इस मन का
क्षत्रिय हैं, सब नशे में चूर
रोज़ के अभ्यास-
कभी अखाड़े में, कभी वन में-
और लग गयी लत। 
अब पल में कैसे उतरे
यह नशा-युद्ध करें या दाँव पर लगायें
बार-बार पिसी हूँ मैं
हँसने पर भी पाबंदी
सज़ा पायी-घुट-घुट रोने की। 
सत्य कह दिया मैंने
जब कहा-अंधे के पुत्र अंधे
अब तक खुली नहीं आँख
ना इनकी-ना उनकी। 
सब अंधे, सारा कुल अंधेपन का शिकार
दुंदुभी बजा, रथ-ध्वजा सजा
मौत के कुएँ में गिरने को तैयार। 
निर्वस्त्र सब यहाँ
भले ही ढके हों तन-
रेशमी अचकनों से, या
लदे हों उन पर मुक्ता माणिक। 
देखता तक नहीं कोई आँखें खोल
सुनना तो दूर। 
इतने महारथी, ज्ञानी, मुनि, ब्रह्मर्षि
उस सभा में-पर मूँद ली आँखें
सी लिये होंठ, और यहाँ तक आ पहुँचे! 
अब तो खोलो आँखें-कोई तो कु्छ बोले
हाय रे विधना-
सखी अब तक नहीं आयी? 
भेजा है माँ गाँधारी के समक्ष
शायद माँ ही कुछ हल निकाले
वो भी तो होगी अधीर, बेकल
कैसे सम्मति देंगी, इस महायुद्ध की
अनजान नहीं इसके अंजाम से। 
जीते कोई भी, हार तो होगी हमारी
भोगनी होगी पीड़ा-हो भले ही
कितनी ही असहनीय। 
मैंने सही है वेदना
क्या जानें, ये पाँच महारथी
कुछ नहीं सहा इन्होंने। 
हल्के आघात पे-उगला सिर्फ़ रोष
हो नशे में मदमस्त, फैलाया आतंक। 
किसने दिया अधिकार
फ़ैसले करने का अधिकार-मति के अंधे! 
जब भी कोशिश की गुत्थी सुलझाने की
गाँठें खुलवाने की, काट दी रस्सी
फिर जोड़ दी-नयी गाँठों से
फिर काटी-फिर जोड़ी
अब तो रह गये टुकड़े
क्या जोड़ेंगे-क्या काटेंगें? 
यह क्या-गोधूलि होने को आई
सखी, कहाँ हो तुम? 
धूल उड़ रही, इधर-उधर चहुँ ओर
नथुनों में अहसास कराती धरा का
धूमिल-हो रही राह, हो रहा गगन। 
कितनी घड़ी बीत गयी
अहसास नहीं हो रहा-बीतते समय का
निगल रहा सब कुछ-भूखा अजगर
कभी तो विश्राम कर ले। 
अभी हो जायेगा निर्णय-फिर सब यथावत
फिर संचार होगा प्राणों का
इस तन में-महसूस कर पाउँगी
फूलों की सुगंध
सुन पाऊँगी-पक्षियों का कलरव
देखूँगी-वो झरना-पानी लिये
न जाने कहाँ जा रहा। 
कहाँ उपभोग कर पायी यह सब
अधीर मन-कर देता व्याकुल प्राण
सब कुछ लग रहा-विकृत, भयावह। 
पदचाप सुनाई दे रही-आ गई सखी! 
चलो-सुनें संदेश माँ गाँधारी का-
वो भी तो हैं-क्षत्राणी, वीरपुत्र जननी
प्रसव पीड़ा उन्होंने भी सही
कैसे व्यर्थ जाने देंगी। 
अपनी तपस्या, अपना मोह
अपना सर्वस्व। 

 

द्रौपदी:


हे सखी-क्या हुआ? 
कैसी हैं-माँ गाँधारी-कुछ कहा? 
 . . . क्या सोच रही? 
अब न करो देर-कहो
सुनने को मन अधीर। 
कैसे लगाई देर इतनी, 
मत देखो-ऐसे निर्वाक? 
मत झुकाओ पलकें-सब कहो
अब असह्य-चुप्पी
गूँज रही-मन में, तन में, प्राणों में। 
सूनापन-रीता है सारा तन
लहू बन-यह वीराना-
बह रहा मेरे रोम-रोम। 
सिहरन सी दौड़ रही-मन उत्सुक
कैसे धरे धीर कोई-यह घड़ी
निर्णायक-यह घड़ी-इस पग पर। 


सखी:

 

कृष्णा-धीर धरो! 
जो भी कहा तुमने, 
सब कुछ सुना-माँ गाँधारी ने
वही भृकुटि वहाँ देखी। 
देखी नहीं जाती दशा उनकी
पतझड़ में घिर दुर्गम जंगल
तरस रहा हल्की-सी बदली को
कभी तो बरसे। 
वेदना बन स्वेद बह रहा
उनके माथे पर
अश्रुपूरित नयन भिगो रहे आँचल
माँ भी उतनी ही
अधीर, बेबस, लाचार! 
गुड़ में फँसी माखी, रह-रह मारे पाँख
जान गयी नियती अपनी। 
साँसें भरी-भरी, शायद हों आख़री
पैर उठते-पर मंज़िल नहीं कोई
जो सुना-वो कुछ भी नहीं
जो देखा-अधिक गंभीर
करुणापूर्ण, अकथनीय। 
निमंत्रण भेजा तुम्हें-बेचैन मिलने को
देखने तुम्हें-तरसते उनके नयन। 
शायद न रहे यह स्नेह
इस महायुद्ध पश्चात
मेघ बरस पट जाये-पुलकित कर जाये धरा। 
हल्का हो जाये मन, बतिया तुम से दिल की बात। 

 

द्रौपदी:


सखी-
तुमने पहुँचायी ठण्डक नेह को, मन को
सुना सन्देश माँ गाँधारी का। 
मैं जाऊँगी, जाना है मुझे
कहना है बहुत कुछ, पर देख उन्हें
न कह पाऊँ कुछ भी। 
कुछ तो सोचा होगा-
देख, समय की यह चाल
द्वार पर ही तो महायुद्ध-महासमर
गहरी निद्रा में सारे रथी, महारथी
नशे में चूर, उन्मादी
दिख रहा साफ़ भविष्य
ऐसे ही आँखें मूँद-जाने कौन-कौन
सो रहे महारथी-क्षत विक्षत
लहू में लोट-पोट
रिस रहा वही लहू
रक्त रंजित कर रहा वसुंधरा
पल-पल काल हो रहा निर्वस्त्र
देख छिन्न-भिन्न सारा शरीर। 
नोंच लेते मांस, चटख टूटती हड्डीयाँ
सियारों-गिद्धों की होड़ में। 
उफ़-
खोलो आँखें-सुनो मन का आर्त्तनाद। 
जागो नशे से-घुल गया क्या साँसों में? 
यह अट्टहास नहीं चिरयुगी। 
समय भी रुका-रुका
चलता सहम-सहम कर
नहीं गुज़रना चाहता
महायुद्ध के घोर दानावल से
पर बच कर जाना, नहीं विधिपूर्ण। 
कितनों को और निगलना-कैसे देखे
यह भयंकर रक्तपात
सिहर जाता काल भी। 
माता कुन्ती-कहाँ हो तुम? 
क्यों गुमसुम-सुधबुध कहाँ उन्हें
घुट रही कोने में-मानो
सिहर रहा मृग शावक
देख गुफा द्वार सिंह
फेरता जीभें, मारता दहाड़ें
विकराल-विषम-
किसके रोके रुकेगा-विधिलेखा। 
भले ही गुज़रे बाक़ी जीवन-इस अंधकार में
अब तक जो गुज़री
इससे कम नहीं होगी, त्रासदी यह
समय के रुकने पर
किसने किया स्पर्श? 
किसके कंपित हाथ? 
कौन? 
हे माते-आप? 
सोई नहीं आप-कौन सा यह प्रहर
रात्रि का? 

 

कुन्ती:


कैसे सो सकती हूँ मैं? 
जननी मैं
देख पा रही शिकन तुम्हारी
विवशता और सहिष्णुता। 


द्रौपदी:


सहिष्णुता? 
नहीं माते: अब और नहीं सहा जाता
कैसे फेरूँ समय की गति
कैसे रोकूँ यह कुचक्र
नियति नहीं उस कल की
जो दिख रही आने वाले पल में
बीज जो बोये, फल की आस में
इतना विषैला, किसने सींचा हलाहल से? 
कैसी उपज इस धरा से
इस कोख से-
दायित्व से परे-रोष से भरे
प्यासे हैं लोग यहाँ-अपनों ही के लहू के। 
कुछ तो कहो माँ-
कुछ तो करो! 


कुन्ती:


धीर धरो बेटी! 
विजय होगी हमारी, सत्य की
धर्म की, कर्म की
क्षत्राणी हो तुम-युद्ध तुम्हारी कर्मभूमि। 
जो धारा सदियों से बही
रोको मत उसे, बदलो मत उसकी गति
युद्ध ही अंतिम निर्णय। 
सारी संभावनायें होगी साकार
कोई नहीं चाहता विनाश-पर निश्चय
इसी से उपजता नया समाज
यही जन्म देता नयी परंपरायें
नयी विधायें। 
अनिवार्य है युद्ध, आज-
मिटाने अर्थहीन रूढीयाँ
जलाने सदियों का अहं
और तटस्थ करने, 
मन का यह विकार। 
यह युद्ध-धर्मयुद्ध नहीं
न ही कर्मयुद्ध-
यह तो एक और सागर मंथन
यहीं से मिलेगा अमृत
बढ़ाएगा कुल गौरव
सींचेगा अपना वंश अनंत
अजेय-पराक्रमी। 
इसी मंथन से निकलेगा-विष
भस्म करेगा बीते परिहास
धोयेगा कलंकित कल
नाश कर उत्पाती जन। 
अधीर मत हो पांचाली
परिणाम सोच
जीते-तो होंगे सम्राट; 
भोगेंगे राजविलास, लौटेंगे सारे सम्मान। 

 

द्रौपदी:


और हारे तो-
क्या रह पायेंगे यथावत। 
मैं सोच नहीं रही परिणाम
बस नहीं चाहती-यह मंथन, 
आस नहीं अमृत की
न विष की। 
कहाँ पनपती नयी विधायें, 
कड़ी नहीं युद्ध-
पुरानी और नयी रुढ़ीवादियों के समन्वय की। 
युद्ध नहीं करता
सफल संभावनायें, 
सिर्फ़ जन्म देता-नयी संभावनायें। 
युद्ध तो मात्र है निमित्त
विनाश का, नपुंसकता का, 
विवेकहीनता का, या फिर
अहं उगलने का। 
जब सारे कुतर्क ढल जाते तर्क में
और मौन हो जाते-भविष्यदृष्टा
तब डोर भविष्य की थाम लेते
दंभी, उदंडी, षडयंत्रकारी, स्वार्थी, 
उत्पाती और खींचते वर्तमान को
विनाश की ओर-खिलखिलाते
कटु वाक्य कहते मधुर शब्दों में
मन को हिलोरें देते, मदमस्त करते
रौंदते धरा को
कराते उसे रक्तपान, सींचते-
उस अहं वृक्ष को, बोया जिसे
विषफल चखने
नाद करते-नगाड़े बजाते
कोई नहीं सुन पाता-अर्धसत्य
मैं नहीं असहमत, आपकी विचारलेखा से। 
फिर भी ऐसा लगता
कुछ टूट रहा, कुछ कमी रह गई
कुछ बाक़ी हैं संभावनायें। 
भेजा था सखी को
माँ गाँधारी समक्ष
कहने उन्हीं अनकही बातों को
खोजने अर्धसत्य-कहीं गुम जो हो गया। 
संभावनाएँ-जो दे सकती नयी दिशायें
भेजा था संदेश सखी संग
घेर लिया मुझे मोह स्वजनों का, 
पितामह का करुणा भरा हाथ
फेरा था स्नेह से-अब तक पुलकित मन
और उनके वंशज-इस कगार पर
बहुत कुछ हो सकता अब भी। 
अथाह सागर हैं हम-
हिलोरें ले रहीं अगणित
करुणा, ममता, स्नेह, लज्जा की लहरें। 
अथक, अनंत, अगणित
तत्पर सदैव बहाने, समा लेने
घृणा, द्वेष की किरकिरी। 
अब जिस मोड़ पर मैं
नहीं सूझता कुछ भी
सिर्फ़ सुनते शब्द-अहं भरे
तर्क के, सुनहरे भविष्य के। 
भूल चुकी अपना अज्ञातवास
वो लाचारी, जो वस्त्र बनी मेरा। 
हे माँ-पूछा माँ गाँधारी से
कहाँ रूप अर्धनारीश्वर का? 
अर्द्धांगिनी हैं हम-मूक वधिर नहीं
जननी हैं, श्री हैं, लक्ष्मी हैं
कैसे रख सके दूर
साया से काया, सुख से दुख
नहीं परे दिन से रात। 
पूर्ण नहीं हो सकता कोई निर्णय
हो अंदेशा सारे पहलुओं पर
सब का नहीं यह मत
हम नहीं सिर्फ़ बिन्दु इस महाप्रयोजन में
सुलझानी यह गुत्थी विकट
धर दोनों हाथों। 
कोई शपथ नहीं ले जाती कुपथ
जाना है मुझे, मिलूँगी
माँ गाँधारी से
मिलानी है कड़ी, मज़बूत करनी
परंपरा कुरु-पांडवों की। 
मैं जाऊँगी। 
आशीष दो माँ
सफल हो प्रयास हमारा
करे दुष्फल दुर्जन प्रयोजन। 

 

कुन्ती:


जाओ बेटी, के पास
खोल दो मन की गाँठ
आशीर्वाद मेरा करे सफल प्रयोजन तुम्हारा
विश्राम कर लो तुम अब
देखो नवयुग के नवस्वप्न
साकार करो उन्हें
तुम बनो द्रष्टा, तुम बनो सृष्टा
यही मेरी अभिलाषा, 
यही मेरी आशा॥

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