अंतःपुर की व्यथा कथा



समीक्षित कृति: अन्तःपुर की व्यथा कथा
समीक्षक: प्रो. डॉ. रामदेव शुक्ल (गोरखपुर, उ.प्र.)
लेखक: अनिल कुमार पुरोहित
प्रकाशक: आशियाना प्रेस, कोलकाता
मूल्य: १० डॉलर (विदेशों में); २५०रु. (भारत में) 
पृष्ठ संख्या: ८८

दो भारतीय महाआख्यान-रामायण और महाभारत-में युग युग की सर्जनात्मकता ऊर्जा को अनुप्राणित करते रहने की क्षमता है। कोई भी उसमें रच सकता है देश-विदेश में इसके प्रमाण भरे पड़े हैं। ओड़िया साहित्य श्रीजगन्नाथमय है। श्री जगन्नाथ अर्थात्‌ महाभारत। काव्य हो या कथा, महाभारत के बिम्ब नित नूतन आलोक वृत्त में उपस्थित होते हैं। प्रख्यात कथा शिल्पी प्रतिभा राय ने द्रौपदी को याज्ञसेनी के रूप में रचकर यही किया है। ओड़िया-हिन्दी के पचास ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद करके, अनेक का हिन्दी से ओड़िया में भी, शंकरलाल पुरोहित इन दोनों भाषाओं के संवेदना-सेतु बन गए हैं। एक सुखद संयोग है कि उन्हीं के पुत्र अनिल कुमार पुरोहित ने महाभारत के द्रौपदी-प्रसंग को आधुनिक मानव में घुला कर एक लम्बी कविता लिखी है, ‘अन्तःपुर की व्यथा कथा।’ 

महाभारत-महासमर घोषित हो गया है। रात बीतते ही अगले दिनारम्भ के साथ सर्वविनाशक संहारलीला आरम्भ हो जायेगी। दोनों वर्गों के उन्मत योद्धा आतुर प्रतीक्षा कर रहे हैं महायुद्ध की। अनिल पुरोहित वीरों की इस आतुरी का मनोवैज्ञानिक (और शरीर वैज्ञानिक भी) कारण बताते हैं:

क्षत्रिय हैं, 
सब नशे में चूर, 
रोज़ के अभ्यास-कभी अखाड़े में
कभी वन में-और लग गयी लत। 
अब पल में उतरे कैसे-यह नशा। 

अन्तःपुर में जाग रही है द्रौपदी, उसकी सखी, गांधारी, और कुंती। स्त्रियाँ हैं ये। पुरुषों को नशा चाहे युद्ध का हो या जुए का, हारती है सिर्फ़ स्त्री। गांधारी के पास सखी से सन्देश भेज कर उत्तर लाने वाली सखी की प्रतीक्षा में बेचैन द्रौपदी सोचती है:

युद्ध करें या दाँव लगायें
बार बार पीसी हूँ मैं। 

महारथी, ज्ञानी, मुनि, ब्रह्मर्षि सबकी उपस्थिति में भरी सभा में अपने साथ हुए अभूतपूर्व अन्याय, 
अत्याचार का स्मरण करती द्रौपदी गांधारी से आशा करती है कि वे इस युद्ध की अनुमति नहीं देंगी। 
क्योंकि वे स्त्री हैं और जानती हैं कि:

जीते कोई भी-हार तो हमारी ही ठहरी
पीड़ा तो भोगनी-हो भले ही
कितनी असहनीय

सखी से गांधारी का सन्देश सुनकर द्रौपदी उनके पास जाने के लिए उत्साहित होती है, तभी कुंती उसके पास आती है। युद्ध का अनर्थ रोकने के लिए द्रौपदी माता कुंती से याचना करती है तो कुंती युद्ध को ‘कर्मभूमी और अंतिम निर्णायक’ मान कहती है:

कोई नहीं चाहता विनाश-पर निश्चय
इससे उपजता नया समाज . . . 
अनिवार्य है युद्ध-मिटाने अर्थहीन रूढ़ियाँ
जलाने सदियों का अहं

कर्त्तव्य ने “धर्मयुद्ध और कर्मयुद्ध’ से आगे बढ़ कर अनिवार्य युद्ध को 'सागर मंथन' के रूप में देखा है—

एक और 'सागर मंथन'
यहीं से मिलेगा अमृत

यहीं से विष भी निकलेगा जो कलंकित कल को धोने के लिए उत्पातियों का विनाश करेगा। द्रौपदी युद्ध को अपने विवेक से परिभाषित करती है।

युद्ध तो मात्र है निमित्त
विनाश का, नपुंसकता का
विवेकहीनता का
या फिर अहं उगलने का

इस अवसर पर कवि स्त्री और स्त्रीत्व को विश्व की कोमल भावनाओं को धारण करके, विकसित करने वाली और तमाम जटिल ग्रंथियों को सुलझाने वाली शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है:

अर्द्धांगिनी हैं हम-मूक वधिर नहीं
जननी हैं। श्री हैं। लक्ष्मी हैं
कैसे अलग रख सकें
साया से काया
सुख से दुःख। नहीं दिन से रात

द्रौपदी आसन्न विपत्ति की गुत्थी को सुलझाने को तत्पर है। वह गांधारी से मिलकर उन्हें भी इस अभियान में साथ लेना चाहती है। कुंती उसे आशीष देती है:

तुम बनो द्रष्टा। तुम बनो स्रष्टा

द्रौपदी गांधारी-मिलन को कवि दो ऐसी सतियों की भेंट के रूप में चित्रित करता है, जो भावी विनाश को देख कर त्रस्त हैं किन्तु निर्णय उनके हाथ में न हो कर युद्धोन्मत पुरुषों के हाथ में है। गांधारी द्रौपदी से कहती हैं:

तुम क्या रूठी, विमुखी हुई
सब कुछ लुट गया, श्रीहीन हो गया
हमारा हस्तिनापुर
षड़यन्त्रकारी चापलूसों से घिरा हस्तिनापुर जर्जर
शौर्यहीन, निर्वस्त्र हो गया है। 

गांधारी कहती है:

द्रौपदी! दे दो इसे थोड़ा-सा मति-वस्त्र! 

कवि ने मति-वस्त्र के रूप में कितनी व्यंजना भर दी है। जिसे राजसभा ने भरी सभा में द्रौपदी को—सकल स्त्रीत्व को—निर्वस्त्र करना चाहा, वही आज स्वयं निर्वस्त्र हुआ पड़ा है। उसके नंगेपन को ढांकने की शक्ति किसमें है? सिर्फ़ द्रौपदी की मति में। पूरी दुनिया के स्त्री विमर्श की चिंता को यहाँ कवि का एक सन्देश है-स्त्रीत्व की मति का (सम्मति का) वस्त्र ही पुरुष वर्चस्व के कारण निर्वस्त्र हुए समाज के नंगेपन को ढँक सकता है। 

इस प्रसंग में कवि ने गांधारी के मर्म में दिए उन घावों का प्रभावशाली वर्णन किया है, जिनकी ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता। अपने अनुभव के आधार पर ही गांधारी वर्तमान की पहचान करती है:

“भविष्य चल रहा पंगु। पंगु वर्तमान के कन्धों पर-
यह पंगुता-विकलांगता-कहाँ से आयी है?” 

गांधारी अपने पुत्रों के विषय में कहती है:

राजनीति में सीखी सिर्फ़ दुर्नीति। यही बनी नींव
इसी पर बढ़ाया इनका साम्राज्य। 
टेढ़ी मेढ़ी जिसकी दीवारें
छत तक कोई पहुँच नहीं पाए
ज़मीन पर बिछी छत-जाने कब
इन दीवारों पर चढ़े
X    X    X    X
छल कपट, माया मोह में ओत प्रोत
मोड़ा सत्य को, निर्णय जो भी किये
पक्षपाती। सबूतों की बली चढ़ाकर
इस महायुद्ध का बीज बोया गया

गांधारी उस दुर्नीति का जो चित्र उपस्थित करती है, क्या आज के भारत का नहीं है? 

द्रौपदी और गांधारी को कवि एक ऐसे धरातल पर ला खड़ा करता है, जहाँ दोनों को एक दूसरे का दुःख अपने से बड़ा लगता है। यही मनुष्यता की धर्मभूमि है जिसका सन्देश यह कविता संप्रेषित करती है। गांधारी ने मांस के लोथड़े को जन्म दिया था। बाद में उनको एक सौ खंडो में विभक्त कर उनमें प्राणों का संचार किया गया था। एक सौ पुत्र की माता होने का उसे गौरव मिला था। वही गांधारी आज सोच रही है:

पुत्र मोह ने जकड़ रखा मुझे
जब जने थे मांस के लोथड़े
घड़े ने फूँके प्राण, पर
अब तक अर्धविकसित
तन से, मन से, कर्म से

गांधारी अपने पुत्रों को अर्धविकसित क्यों कहती है? इसलिए की उनमें मानवीय संवेदनाओं का विकास नहीं हुआ है। इस दृष्टि से आज इक्कीसवीं सदी के 'सब तरह से उन्नत' समाज क्या 'अर्धविकसित' नहीं है? 

गांधारी की संवेदना और आशीष पा कर द्रौपदी कुंती के पास लौटती है। कुंती द्रौपदी की पीड़ा सुन रही होती है कि कृष्ण आ जाते हैं। द्रौपदी उनकी सखी है। उसे सृजन और संहार के रहस्य समझाते हुए कहते हैं कि:

इसी धरा में, नहीं टूटता तो
मेरा विश्वास। नहीं जलता तो
मेरा प्रेम। अटूट है रिश्ता
मेरा तुमसे, स्वजनों से। 

कुंती एक बार फिर सारे अनर्थों का स्मरण कराकर कृष्ण से कहती है कि यह महाविनाश तुम्हीं रोक सकते हो, फिर कहती है:

जो नियम तुमने बनाये
मान रखो उन धर्मों का
मत तोड़ना समय की चाल। 

कृष्ण कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान का रहस्य (गीता की शैली में) कुंती और द्रौपदी के समझाते हैं। सब कुछ जानते हुए भी समझौते का एक प्रयास का वादा करते हैं। इस प्रसंग में धृतराष्ट्र के पुत्र मोह के व्याज से कवि आज के पुत्रांध पिताओं की उस नियति को रेखांकित करता है जो अपनी अतृप्त इच्छाओं की तृप्ति का माध्यम बनाकर पुत्र का (और अपना भी) जीवन नष्ट कर डालते हैं। 

अन्तिम चरण में कुंती द्रौपदी के माध्यम से कवि आज के विश्व में व्यक्तियों और राष्ट्रों के अहम् के विस्फोट की तुच्छता पर प्रहार करता है:

जाने कितने अगणित ब्रह्मांड
देख रहा वो पालनहार
मुस्कुरा भर देता देख हमारा अहम्
बाँट लिया हमने जाति, धर्म, भाषा
वर्ण, संस्कृति की देकर दुहाई
खिलखिला रहा रचयिता
देख हमारी क्षणिक वाक्पटुता। 
हमने बनाए नियम सारे
और बो दिए
धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य के बीज। 
जो दुराचारी डूब रहा असत्य के सागर में
वही देगा दुहाई सत्य की
जब मिटेगा इस समर में। 

उपर्युक्त चित्र जितना महाभारत का है, उससे अधिक विश्व का है। अनिल कुमार पुरोहित टोरोंटो (कनाडा) में रहते हैं। एक ओर महाभारत आख्यान से सांस्कृतिक जुड़ाव उन्हें माता-पिता से मिला है, दूसरी ओर सर्वशक्ति संपन्न राष्ट्र होने के अमेरिकी दंभ को नग्न रूप में देख, सुन समझ रहे हैं। अपनी काव्य प्रतिभा और कल्पना शक्ति से उन्होंने यह मर्मस्पर्शी काव्य-रचना की है। इसकी चिंता राष्ट्रकवी रामधारी सिंह 'दिनकर' की अमर कृति 'कुरुक्षेत्र' की अगली कड़ी है।

— प्रो. डॉ. रामदेव शुक्ल,
गोरखपुर (उ. प्र.) 

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