अंतःपुर की व्यथा कथा (रचनाकार - अनिल कुमार पुरोहित)
दृश्य-4
द्रौपदी:
परिहास किया दुर्योधन ने
भाभी के ठठ्ठे का
अपमानित किया पितृस्नेह को
तिलांजली दे रहा सारे रिश्ते-नाते
डूबकर अपने अहं में!
नश्वर बल पर इतना अभिमान!
नहीं झेल पायेगा इसका कुपरिणाम
शान्ति प्रेमी-नहीं निर्बल
मैं नहीं अबला, शक्ति मैं-प्रचंड
युद्ध विमुखी-मैं नहीं,
हूँ मैं जननी, मैं हूँ धरणी
कुछ भी नहीं, मेरे लिये असह्य।
मैं ही समाई प्रेम बन, बस गयी कण–कण
नहीं मैं बाधक-यदि पांडुपुत्र युद्धरत।
शक्ति बन बस जाऊँगी सबके तन-मन
बन जाऊँगी धार अस्त्रों की
बनेंगे विजयी मेरे रक्षक!
जानती तुम भी हो माँ कुन्ती
सँजो रखे हमने अमृत-विष कलश
जो मथेगा जैसा-पाएगा वैसा
मोड़ यह इतिहास का,
नहीं हटेगा पीछे क़दम।
शान्ति हो या युद्ध
आगे बढ़ेंगे पांडुपुत्र
गौरवान्वित करेंगे, मर्यादा रखेंगे
हस्तिनापुर की प्रथा।
कुन्ती:
जंगल जल जाते सूरज की तपन में
बह जाते गाँवों के गाँव
नदी के उफनने पर
फिर फूटती नयी कोंपलें राख के ढेर से
फिर बसते नए गाँव।
ढह जाएँगी कुप्रथाएँ, कुसंस्कृतियाँ
इस युद्ध की विभीषिका में,
जन्म लेगा नया इतिहास
सजग प्रजा कर्मठ समाज।
यदि रहा सार्थक शान्ति प्रयास
नहीं रहेंगे अकर्मण्यता का शिकार
नियति तय करेंगे कर्मठ ज्ञानी
हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते
कर्महीन, अज्ञानी अविवेकी।
तुम व्यर्थ चिंतित
युद्ध का परिणाम सोच।
युद्ध होता विनाशक, पर
परिणाम नहीं अहितकारी।
युद्ध होता सामाजिक आपदा,
यदि युद्ध अवश्यंभावी तो शिरोधार्य,
मत टालो घड़ी युद्ध की
विद्रोह करो अपने आप से, पांचाली!
मत उलझो धर्म-अधर्म के जाल में
पहचानो इस समय का धर्म
कल के कारण मत बिगाड़ो अपना कल
समर्थ बनो, समय की धार संग चलो,
यह जीवन नहीं सीधी राह
चुनौती मिलती, हर पल
सोचो चुनने से पहले, मत उसके बाद,
आगे बढ़ो, मत करो पश्चात्ताप
हर राह की अपनी बाधा
साथ नये मोड़, नयी चुनौती
यही सब तो जीवन धारा
बहती रहे सुख-दुःख के पाटों बीच
आगे, निरंतर।
दुःख की चिंता में घिर
मत गँवाओ सुख के पल।
द्रौपदी:
कठिन है द्रोह अपने आप से
नहीं कर पाए पितामह, न ही धृतराष्ट्र
कोई उलझा हस्तिना मोह में
कोई पितृमोह में।
काटती मुझे चुप्पी महारथियों की
कचोटती कभी, ख़ामोशी इनकी
सर्वनाश में कब हुआ विकास?
किस युग ने देखे ऐसे विवश
इतने ज्ञानी, बलशाली,
पर क्यों?
कुन्ती:
कोई नहीं विवश, पांचाली
सब समय पाश से बँधे
कोई नहीं ख़ामोश, बस सुन नहीं रहा
दुर्योधन का अहं।
बेबस, छ्टपटा रहा शकुनि के पाश में
सुनता वही, जो सुनना चाहता
जाने क्या सुने, कल की महासभा में?
कोई कुचक्र नहीं तोड़े, केशव ने
रचे थे जितने दुर्योधन मंडली के
सब षडयंत्र विफल किए
धर्म कर्म का साथ निभा कर।
देखो पांचाली
यह क़तार बद्ध चींटियों की
लिए जा रही तृण के टुकड़े
सँजो रही बाँबियाँ अपनी।
इनमें संचित शौर्य, अहं
हर पल परिश्रम रत,
बन रखा अपना अभेद्य दुर्ग,
बह जाता हल्की-सी बारिश में
फिर जुट जाती,
सजोने बिखरे मिट्टी के ढेर
क़ैसा इनका अस्तित्व, क़ैस इनका अहं?
इस असीम ब्रह्माण्ड में
कहाँ इनका शौर्य?
क्या है इनकी सत्ता?
जाने कितने अगनित ब्रह्मांड
देख रहा वो पालनहार
मुस्कुरा भर देता देख हमारा अहं।
बाँट लिया हमने, जाति धर्म, भाषा
वर्ण, संस्कृति की देकर दुहाई।
खिलखिला रहा रचियता,
देख कर हमारी क्षणिक वाक्पटुता।
उसने नहीं बनाई रीत धर्म की
न बनाई ये दीवारें ऊँच-नीच की।
हमने बनाए नियम सारे और बो दिए
धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य के बीज
वो इन सब से परे, खेल रहा जो खेल,
तुम सोचो पांचाली-
जो दुराचारी डूब रहा असत्य के सागर में
वही देगा दुहाई सत्य की
जब मिटेगा इसी समर में।
पग-पग पर अधर्म करता जो नहीं कतराया
क्या सह पायेगा, हल्का स्पर्श धर्म का?
नहीं पांचाली-ये कुरु महारथी
रच रहे रोज़ नये कुचक्र
धराशायी हो, देंगे दुहाई सच की।
जो है वो दिखता नहीं,
जो नहीं उसे देख हो रहे मदमस्त
क़ैसे महसूस कर सकते रंगों की महक
क़ैसे देख सकते ख़ुश्बू के रंग।
सीमित हैं इन्द्रियाँ, पर
उन्मत्त कुरु महारथी सत्य को सत्य जान
अधर्म को धर्म मान
हो रहे महान!
द्रौपदी:
माँ! जो होगा सो अटल
साथ हमारे सखा कृष्ण
मैं हो गयी शांत, निर्विकार।
कुछ भी हो परिणाम शान्ति प्रयास का,
मैं नहीं विचलित
सखा साथ मेरे।
बहने दो जीवन धार
यही बहेगी, सींचेगी नया युग
हम सब निमित्त मात्र।
यदि रहा दुर्योधन शान्तिपक्ष
मिलजुल भोगेंगे यह संसार
और यदि रहा दुर्मति युद्धरत
नहीं रुकेंगे पांडुपुत्रों के प्रहार
जब तक निर्मूल ना हो कुरुवंश
मेरा मन शांत, क्योंकि सखा मेरे संग।
ऊँ शान्ति, शान्ति, शान्ति . . . . . .॥